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प्रवचनसार
पक्खीणघादिकम्मो अणंतवरवीरिओ अहियतेजो। जादो अदिदिओ सो णाणं सोक्खं च परिणमदि 1-19॥
प्रक्षीणघातिकर्मा अनन्तवरवीर्योऽधिकतेजाः । जातोऽतीन्द्रियः स ज्ञानं सौख्यं च परिणमति ॥1-19॥
सामान्यार्थ - [सः] वह स्वयंभू भगवान् आत्मा [अतीन्द्रियः जातः] अतीन्द्रिय - इन्द्रिय ज्ञान से परे - होता हुआ [ ज्ञानं सौख्यं च ] अपने और पर के प्रकाशने (जानने) वाला ज्ञान तथा आकुलता रहित अपना सुख, इन दोनों स्वभावरूप [परिणमति ] परिणमता है। कैसा है भगवान्? [ प्रक्षीणघातिकर्मा ] सर्वथा नाश किये हैं चार घातिया कर्म जिसने अर्थात् जब तक घातिया कर्म सहित था तब तक क्षायोपशमिक मत्यादि ज्ञान तथा चक्षुरादि दर्शन सहित था। घातिया कर्मों के नाश होते ही अतीन्द्रिय हुआ। फिर कैसा है? [अनन्तवरवीर्यः] मर्यादा रहित है उत्कृष्ट बल जिसके अर्थात् अंतराय के दूर होने से अनन्तबल सहित है। फिर कैसा है? [अधिकतेजाः] अनन्त है ज्ञानदर्शन-रूप प्रकाश जिसके अर्थात् ज्ञानावरण दर्शनावरण कर्म के जाने से अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शनमयी है। और समस्त मोहनीय कर्म के नाश से स्थिर अपने स्वभाव को प्राप्त हो गया है।
On destruction of the four inimical (ghātī) karmas, the selfdependent soul – ‘svayambhū’- attains infinite knowledge (that illumines the self as well as all other objects) and indestructible happiness, both beyond the five senses (as such, termed atīndriya). On destruction of the obstructive (antarāya) karma, it is endowed with infinite strength. Thus, as the four inimical (ghātī) karmas are destroyed, the soul attains supreme lustre (teja) that is its own-nature (svabhāva).
Explanatory Note: On destruction of the four inimical (ghātī) karmas, the soul no longer depends on the five senses; it becomes
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