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Pravacanasăra
भंगविहीण यभवो संभवपरिवज्जिदो विणासो हि । विज्जदि तस्सेव पुणो ठिदिसंभवणाससमवायो ॥1-17॥
भङ्गविहीनश्च भवः संभवपरिवर्जितो विनाशो हि । विद्यते तस्यैव पुनः स्थितिसंभवनाशसमवायः ॥1-17॥
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सामान्यार्थ – [ भंगविहीनः भवः विद्यते ] जो आत्मा शुद्धोपयोग के प्रसाद के स्वरूप को प्राप्त हुआ है उस आत्मा के नाशरहित उत्पाद है। अर्थात् जो इस आत्मा के शुद्धस्वभाव की उत्पत्ति हुई फिर उसका नाश कभी नहीं होता । [ च संभवपरिवर्जितः विनाशः हि ] और विनाश है वह उत्पत्तिकर रहित है, अर्थात् अनादिकाल की अविद्या ( अज्ञान) से पैदा हुआ जो विभाव (अशुद्ध) परिणाम उसका एक बार नाश हुआ फिर वह उत्पन्न नहीं होता है। इससे तात्पर्य यह निकला कि जो इस भगवान् (ज्ञानवान ) आत्मा के उत्पाद है वह विनाशरहित है और विनाश उत्पत्तिरहित है तथा अपने सिद्धिस्वरूपकर ध्रुव (नित्य) है, अर्थात् जो यह आत्मा पहले अशुद्ध दशा में था वही आत्मा अब शुद्ध दशा में मौजूद है इस कारण ध्रुव है। [ तस्यैव पुनः स्थितिसंभवनाशसमवायः ] फिर उसी आत्मा के ध्रौव्य, उत्पत्ति, नाश इन तीनों का मिलाप एक ही समय में मौजूद है क्योंकि यह भगवान्-आत्मा एक ही समय तीनों स्वरूप परिणमता है अर्थात् जिस समय शुद्धपर्याय की उत्पत्ति है उसी समय अशुद्धपर्याय का नाश है और उसी काल में द्रव्यपने से ध्रुव है। दूसरे समय की जरूरत ही नहीं है। इस कहने से यह अभिप्राय हुआ कि द्रव्यार्थिकनय से आत्मा नित्य होने पर भी पर्यायार्थिकनय से उत्पत्ति, विनाश, ध्रौव्य, इन तीनों सहित ही है।
The soul that has attained its own-nature (svabhava) through pure-cognition (śuddhopayoga) experiences origination (utpāda) of its own nature (svabhāva) that is without destruction (vyaya or nāśa), and destruction (vyaya or nāśa) of the earlier impure state that is without origination (utpāda). In
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