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________________ Pravacanasāra (pratyākhyāna), and confession (ālocanā). He becomes steady in his true nature, shedding all activities (yoga) of the body, the speech, and the mind. Since activities of the body lead to demerit. he restricts his bodily activities and remains calm in his natural state of nude (yathājāta) existence. वदसमिदिदियरोधो लोचावस्सयमचेलमण्हाणं । खिदिसयणमदंतवणं ठिदिभोयणमेयभत्तं च ॥-8॥ एदे खलु मूलगुणा समणाणं जिणवरेहिं पण्णत्ता। तेसु पमत्तो समणो छेदोवट्ठावगो होदि ॥3-9॥ (जुगलं) व्रतसमितीन्द्रियरोधो लोचावश्यकमचैलक्यमस्नानम् । क्षितिशयनमदन्तधावनं स्थितिभोजनमेकभक्तं च ।।-8॥ एते खलु मूलगुणाः श्रमणानां जिनवरैः प्रज्ञप्ताः । तेषु प्रमत्तः श्रमणः छेदोपस्थापको भवति ॥3-9॥ (युग्मम् ) सामान्यार्थ - [व्रतसमितीन्द्रियरोधः ] पाप-योग क्रिया से रहित पञ्च महाव्रत, पाँच समिति और पाँच इन्द्रियों का निरोध (रोकना) [लोचावश्यकं] केशों का लोंच, छह आवश्यक क्रियायें [ अचैलक्यं] दिगम्बर अवस्था [ अस्नानं] अंग प्रक्षालनादि क्रिया से रहित होना [क्षितिशयनं] भूमि-शयन [ अदन्तधावनं] अदंतधावन अर्थात् दतौन नहीं करना [स्थितिभोजनं] खड़े होकर भोजन करना [च] और [ एकभक्तं ] एक बार भोजन (आहार) [ एते ] ये (अट्ठाईस) [मूलगुणाः ] मूलगुण [ श्रमणानां] मुनीश्वरों के [जिनवरैः] सर्वज्ञ-वीतरागदेव ने [ खलु ] निश्चयकर [ प्रज्ञप्ताः] कहे हैं, इन मूलगुणों से ही यतिपदवी स्थिर रहती है। [ तेषु ] उन मूलगुणों में जो किसी समय [प्रमत्तः] प्रमादी हुआ [श्रमणः ] मुनि हो तो [छेदोपस्थापकः भवति ] संयम के छेद (भंग) का फिर स्थापन करने वाला होता है। 260
SR No.034445
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay K Jain
PublisherVikalp Printers
Publication Year
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit, English
ClassificationBook_Devnagari & Book_English
File Size16 MB
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