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प्रवचनसार
SECTION-3
Reality of Conduct (cāritratattva)
एवं पणमिय सिद्धे जिणवरवसहे पुणो पुणो समणे । पडिवज्नदु सामण्णं जदि इच्छदि दुक्खपरिमोक्खं ॥3-1॥
एवं प्रणम्य सिद्धान् जिनवरवृषभान् पुनः पुनः श्रमणान् । प्रतिपद्यतां श्रामण्यं यदीच्छति दुःखपरिमोक्षम् ॥3-1॥
सामान्यार्थ - [एवं] इस प्रकार ‘एस सुरासुर' इत्यादि गाथाओंकर [जिनवरवृषभान् ] जिनवरों में श्रेष्ठ ऐसे अर्हन्तों को [ सिद्धान् ] सिद्धों को [श्रमणान् ] मुनियों को [पुनः पुनः] बार-बार [प्रणम्य] नमस्कार करके 'भव्यजीवों को चारित्र में प्रेरणा करने का उपदेश करते हैं कि हे भव्यजीवों! जैसे दुःख का नाश करने के लिए मेरे आत्मा ने पञ्चपरमेष्ठियों को वंदना (नमस्कार) पूर्वक निर्मल ज्ञान-दर्शनरूप समता-भाव नाम वाला यतिमार्ग अंगीकार किया है उसी प्रकार' [ यदि] जो तुम्हारा आत्मा भी [ दुःख परिमोक्षं] दुःख से मुक्त होने की [इच्छति ] अभिलाषा करता है तो [श्रामण्यं] यतिधर्म को [ प्रतिपद्यतां] प्राप्त होवे।
After repeatedly making obeisance to the Supreme Lord Jina (the Arhat), the Liberated Souls (the Siddha) and the Saints (śramaņa), we suggest that if your soul too wishes to escape from misery, may it adopt the conduct - dharma’- of the ascetic.
Explanatory Note: We promulgate for you, as we have experienced, the path, typified by the conduct based on equanimity (sāmyabhāva), that leads to liberation (mokşa). May you adopt the conduct (dharma) of theascetic.
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