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Pravacanasara
जो जाणादि जिणिंदे पेच्छदि सिद्धे तहेव अणगारे । जीवे य साणुकंपो उवओगो सो सुहो तस्स 112 - 6511
यो जानाति जिनेन्द्रान् पश्यति सिद्धांस्तथैवानागारान् । जीवे च सानुकम्प उपयोगः स शुभस्तस्य ॥2-65॥
सामान्यार्थ – [ यः ] जो जीव [ जिनेन्द्रान् ] परमपूज्य देवाधिदेव परमेश्वर वीतराग जो अर्हन्तदेव हैं उनके स्वरूप को [ जानाति ] जानता है [ सिद्धान् ] अष्टकर्मोपाधि रहित सिद्ध परमेष्ठियों को [ पश्यति ] ज्ञानदृष्टि से देखता है [ तथैव ] उसी प्रकार [ अनागारान् ] अनागारों को आचार्य-उपाध्याय-साधुओं को भी जानता है, देखता है [ च ] और [ जीवे ] समस्त प्राणियों पर [ सानुकम्पः ] दयाभाव युक्त है [ तस्य ] उस जीव के [ सः ] वह [ शुभः उपयोगः ] शुभोपयोग - चैतन्य - विकार - रूप परिणाम जानना चाहिए।
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The soul (jiva) that knows the nature of the Tirthankara (Lord Jina, the Arhat), perceives with knowledge-eyes the liberated souls (the Siddha), similarly, knows and perceives the saints (śramana, anāgāra) – the chief preceptor (ācārya), the preceptor (upādhyāya), the ascetic (sādhu) - and is compassionate towards all living beings, engenders auspicious-cognition (śubhopayoga).
Explanatory Note: Without attaining the excellent state of destruction-cum-subsidence ( ksayopaśama) of the perception - deluding (darśanamohanīya) and the conduct-deluding (cāritramohaniya) karmas, and in the presence of the virtuousattachment (śubharāga), the soul (jīva) has the disposition of adoration of the five Supreme Beings. It also has compassion towards all living beings. These are marks of auspicious-cognition (śubhopayoga).
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