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Niyamasāra
नियमसार
जीव ज्ञानस्वरूप है - Knowledge is own-nature of the soul -
णाणं जीवसरूवं तम्हा जाणेइ अप्पगं अप्पा । अप्पाणं ण वि जाणदि अप्पादो होदि विदिरित्तं ॥१७०॥
ज्ञान जीव का स्वरूप है, इसलिये आत्मा आत्मा को जानता है। यदि ज्ञान आत्मा को न जाने तो (वह) आत्मा से व्यतिरिक्त (प्रथक्) सिद्ध हो।
Knowledge (jñāna) is the own-nature (svarūpa) of the soul (ātmā), therefore, the soul knows the soul. If knowledge (jñāna) is unable to know the soul (ātmā), it will become distinct from the soul.
EXPLANATORY NOTE
Ācārya Kundakunda's Pravacanasāra:
आदा णाणपमाणं णाणं णेयप्पमाणमुद्दिटुं । णेयं लोयालोयं तम्हा णाणं तु सव्वगयं ॥१-२३॥
जीवद्रव्य ज्ञान के बराबर है क्योंकि द्रव्य अपने-अपने गुण-पर्यायों के समान होता है, इसी न्याय से जीव भी अपने ज्ञानगुण के बराबर हुआ। आत्मा ज्ञान से न तो अधिक न ही कम परिणमन करता है, जैसे सोना अपनी कड़े, कुंडल
आदि पर्यायों से तथा पीले वर्ण आदिक गुणों से कम या अधिक नहीं। परिणमता, उसी प्रकार आत्मा भी समझना। और ज्ञान ज्ञेय के (पदार्थों के) प्रमाण है ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है। जैसे - ईंधन में स्थित आग ईंधन के बराबर है उसी तरह सब पदार्थों को जानता हुआ ज्ञान ज्ञेय के प्रमाण है। जो ज्ञेय है वह लोक तथा अलोक है, जो भूत-भविष्यत-वर्तमान काल की अनन्त पर्यायों सहित छह द्रव्य हैं उसको लोक, और इस लोक से बाहर अकेला आकाश उसको अलोक जानना। इन्हीं दोनों - लोक-अलोक - को ज्ञेय कहते
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