SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 346
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Niyamasāra नियमसार प्रत्यक्ष ज्ञान का वर्णन - The nature of direct knowledge – मुत्तममुत्तं दव्वं चेयणमियरं सगं च सव्वं च । पेच्छंतस्स दु णाणं पच्चक्खमणिंदियं होइ ॥१६७॥ मूर्त-अमूर्त, चेतन-अचेतन द्रव्यों को तथा स्व को और समस्त (परद्रव्यों) को देखनेवाले (जाननेवाले) का ज्ञान प्रत्यक्ष और अतीन्द्रिय होता है। The knowledge (jñāna) that sees (knows) all substances - material (mūrta) and non-material (amūrta), animate (cetana) and inanimate (acetana), self and others – is direct (pratyakşa) and sense-independent (atīndriya). EXPLANATORY NOTE Ācārya Kundakunda’s Pravacanasāra: णत्थि परोक्खं किंचि वि समंत सव्वक्खगुणसमिद्धस्स । अक्खातीदस्स सदा सयमेव हि णाणजादस्स ॥१-२२॥ इन केवली भगवान् के कुछ भी पदार्थ परोक्ष नहीं है। एक ही समय सब द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव को प्रत्यक्ष जानते हैं। कैसे हैं वे भगवान्? सदा इन्द्रियों से रहित ज्ञान वाले हैं। इन्द्रियां संसार संबंधी ज्ञान का कारण हैं और परोक्षरूप मर्यादा लिये पदार्थों को जानती हैं, इस प्रकार की भाव-इन्द्रियां भगवान् के अब नहीं हैं इसलिये सब पदार्थों को सदा ही प्रत्यक्ष-स्वरूप जानते हैं। फिर कैसे हैं? सब आत्मा के प्रदेशों (अंगों) में सब इन्द्रियों के गुण जो स्पर्शादि का ज्ञान उसकर पूर्ण हैं अर्थात् जो एक-एक इन्द्रिय एक-एक गुण को ही जानती है जैसे आँख रूप को, इस तरह के क्षयोपशमजन्य ज्ञान के अभाव होने पर प्रगट हुए केवलज्ञान से वे केवली भगवान् सब अंगों द्वारा सब स्पर्शादि विषयों को जानते हैं। फिर कैसे हैं? अपने से ही निश्चयकर केवलज्ञान को प्राप्त हुए हैं। . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . 280
SR No.034367
Book TitleNiyam Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay K Jain
PublisherVikalp
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Book_English
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy