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निश्चयपरमावश्यक अधिकार
11 - THE SUPREME ESSENTIAL अन्यवश साधु का आवश्यक कर्म नहीं है - The ascetic who is dependent on others does not observe the supreme-essential (paramāvaśyaka) – जो चरदि संजदो खलु सुहभावे सो हवेइ अण्णवसो । तम्हा तस्स दु कम्मं आवासयलक्खणं ण हवे ॥१४४॥
निश्चय से जो (श्रमण) संयत रहता हुआ शुभ-भाव में प्रवृत्ति करता है वह अन्यवश है, इसलिये उसके आवश्यक कर्म का लक्षण नहीं है। भावार्थ - जो श्रमण शुभ भावों में प्रवृत्ति करता है वह अवश नहीं है किन्तु अन्यवश है, इसलिये उसका कर्म आवश्यक नहीं कहलाता है।
The ascetic (śramana) who, although adept in restraint (samyama) but engages in auspicious (śubha) disposition, is dependent-on-others (anyavasa); he does not exhibit the mark (laksana) of the essential-duty (āvasyaka karma).
EXPLANATORY NOTE
Acārya Kundakunda's Pravacanasāra: असुहोवओगरहिदो सुहोवजुत्तो ण अण्णदवियम्मि । होज्जं मज्झत्थोऽहं णाणप्पगमप्पगं झाए ॥२-६७॥ मिथ्यात्व, विषय, कषायादि रहित हुआ, शुभोपयोग-रूप भावों में भी उपयोग नहीं करने वाला और शुभ-अशुभ द्रव्य तथा भाव-रूप पर-भावों में मध्यवर्ती हुआ अर्थात् दोनों को समान मानने वाला ऐसा स्व-पर-विवेकी मैं ज्ञानस्वरूप शुद्ध जीव-द्रव्य (आत्मा) का परम समरसी-भाव में मग्न हुआ ध्यान (अनुभव) करता हूँ।
Rid of inauspicious-cognition (aśubhopayoga), also not having
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