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विजयभद्रंकरसूरीश्वरजी म.सा. के शिष्यरत्न लेखक :- मुनिपुण्यविजयजी म.सा. सोलहवीं शताब्दीके जगद्गुरू आ. श्री हीरसूरीश्वरजी म.सा.
-: जन्मकाल :
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इस परिवर्तनशील संसार में प्रबल पुण्यराशिके साथ जीव मनुष्य जीवन में आते है और अपना देव - दुर्लभ अमूल्य मानवभव विषय कषायके कीडे बनकर व्यर्थ गवाँ देते है । याने प्राप्ति की जीत पराजीतमें परिवर्तन कर देते है । किंतु उसका ही भव सफल होता है जो महापुरुषके सत्संग को प्राप्त कर स्वकल्याण के साथ अन्य जीवों को उर्ध्वगमन कराने के लिये दिवादांडी रूप बनते है ।
गुजरात बनासकांठा जिले में धर्म- धन और बाह्य-धन से युक्त पालणपुर नामका बडा शहर था। उस नगर में सदा धर्म कार्य में आसक्त कूंराशा श्रेष्टी बसते थे । उनकी शीलादि गुण वैभव सम्पन्न नाथीबाई नामक धर्म - प्रिया थी । सांसारिक सुखका उपभोग करते हुये आपको चार पुत्र और तीन लडकियाँ हुई थी । पुत्रके नाम थे संघजी, सूरजी, श्रीपाल एवं हीरजी और पुत्री रंभा, राणी एवं विमला थी । हीरजीका जन्म वि.सं. १५८३ मार्गशिर्ष शुक्ल नवमी सोमवार के दिन हुआ था । "पुत्रके लक्षण पालणे में" इस कहावत के अनुसार छोटे लडके हीरजी का तेज प्रतापदेहलालित्य भव्य था एवं आकर्षित था । इससे सब लोग उनको बडे प्रेम से बुलाते थे और खीलाते थे । हीरजी बचपन से धर्म प्रति आदरवाले थे । पूर्वका क्षयोपशम होने से ज्ञानमें भी प्रवीण थे । व्यवहारिक ज्ञानाभ्यास के साथ धर्म गुरुवर के पास जाकर धर्म का तत्त्वज्ञान प्रसन्न चित्त से सुनते थे । जिससे उसने अपना अंतःकरण वैराग्य रंग से रङ्गित बना दिया था ।
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