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________________ ७८ नहीं है, यावत् सिद्ध भी नहीं है. अक्रियावादीयोंकी ऐसी प्रज्ञा-दृष्टि प्ररुपणा है. ऐसा ही उन्होंका छंदा है, ऐसा ही उन्होंका राग है, और ऐसा ही अभीष्ट है, ऐसे पाप-पुण्यकी नास्ति करते हुवे वह नास्तिकलोक महारंभ, महापरिग्रहकी अन्दर मूच्छित है. इसीसे वह लोक अधर्मी, अधर्मानुचर, अधर्मको सेवन करनेवाले, अधर्मको ही इष्ट जाननेवाले, अधर्म बोलनेवाले, अधर्म पालनेवाले, अधर्मका ही जिन्होंका आचार है, अधर्मका प्रचार करनेवाले, रातदिन अधर्मका ही चिंतन करनेवाले, सदा अधर्मकी अन्दर रमणता करते है. नास्तिक कहते है-इस अमुक जीवों को मारो, खड्गादिसे छेदो, भालादिसे भेदो, प्राणोंका अंत करो, ऐसा अकृत्य कार्य करते हुवे के हाथ सदैव लोही (रौद्र ) से लिप्त रहते है. वह स्वभावसे ही प्रचंड क्रोधवाले, रौद्र, क्षुद्र पर दुःख देनेमें तथा अकृत्य कार्य करने में साहसिक, परजीवोंको पाशमे डाल ठगनेवाले, गूढ माया करनेवाले, इत्यादि अनेक कुप्रयोगमें प्रवृत्ति करनेवाले, जिन्होंका दुःशील, दुराचार, दुर्नयके स्थापक, दुव्रतपालक, दूसरोंका दुःख देखके आप आनन्द माननेवाले, आचार, गुप्ति, दया, प्रत्याख्यान, पौषधोपवास रहित है. असाधु, मलिनवृत्ति, पापाचारी, प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, कलह, अभ्याख्यान, पैशुन्य, परपरिवाद, रति अरति, मायामृषावाद और मिथ्यात्वशल्य-इस अठारा पापोंसे
SR No.034234
Book TitleShighra Bodh Part 16 To 20
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar
PublisherRavatmal Bhabhutmal Shah
Publication Year1922
Total Pages424
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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