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नम वह तत्काल गिर पडता है, इसी माफिक मोहनीय कर्मका शिरच्छेद करनेसे सर्व कौका नाश हो जाता है (२) सैनापति भाग जानेसे सेना स्वयंही कमजोर होकर भग जाती है. इसी माफिक मोहनीय कर्मरुप सेनापति क्षय होनेसे शेष काँरुपी सैन्य स्वयंही भाग जाता है (क्षय हो जाता है.) ( ३ ) धूम रहित अग्नि इन्धनके अभावसे स्वयं क्षय होता है इसी माफिक मोहनीय कर्मरुप अग्निको राग-द्वेषरुप इन्धन न मिलनेसे क्षय होता है. मोहनीयकर्म क्षय होनेपर शेष कर्मक्षय होता है. (४) जैसे सुके हुवे वृक्षके मूल जल सिंचन करनेसे कभी नवपल्लवित नहीं होते है इसी माफिक मोहनीयकर्म सूक (क्षय) जानेपर दूसरे कर्मोंका कभी अंकुर उत्पन्न नहीं हो सक्ता है. (५) जैसे बीजको अग्निसे दग्ध कर दीया हो, तो फिर अंकुर उत्पन्न नहीं हो सक्ता है. इसी माफिक कौका बीज (मोहनीय) दग्ध करनेसे पुनः भवरुप अंकुर उत्पन्न नहीं होते है.
इस प्रकारसे केवळज्ञानी आयुष्यके अन्तमे औदारिक, तैजस, और कार्मण शरीर तथा वेदनीय, आयु, नामकर्म
और गोत्रकर्मको सर्वथा छेदन कर कर्मरज रहित सिद्धस्थानको प्राप्त कर लेते हैं
भगवान् वीरप्रभु आमंत्रण कर कहते है कि-भो आयुष्मान् ! यह चित्त समाधिके कारण बतलाये है. इसको वि. शुद्ध भावोंसे आराधन करो, सन्मुख रहो, स्वीकार करो. इ.