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श्चित देवे अगर प्रायश्चित न देवेगा तो, कोइभी साधु किसीके साथ स्वल्पही द्वेष होनेसे आक्षेप कर देगा. इसके लीये कल्पके छे पत्थर कहा है. (१) कोइ साधुने आचार्यसे कहाकि अमुक साधुने जीव मारा है. जीस साधुका नाम लीया, उसको आचार्य पूछेकि हे आर्य ! क्या तुमने जीव मारा है ? अगर वह साधु स्वीकार करेकि-हां महाराज ! यह अकृत्य मेरे हाथसे हुवा है, तो उस मुनिको आगमानुसार प्रायश्चित देवे, अगर वह साधु कहैकि-नहीं, मैंने तो जीव नहीं मारा है. तब श्राक्षेप करनेवाले साधुको पूछना, अगर वह पूर्ण साबुती नहीं देवे, तो जितना प्रायश्चित्त जीव मारनेका होता है, उतनाही प्रायश्चित्त उस आक्षेप करनेवाले साधुको देना चाहियेकि दुसरी बार कोइभी साधु किसीपर जूठा आक्षेप न करै. भावार्थनिर्बल साधु तो जूठा आक्षेप करेही नहीं, परन्तु कौकी विचित्र गति होती है. कभी द्वेषका मारा करभी देवे, तो गच्छ निर्वाहकारक आचार्यको इस नीति का प्रयोग करना चाहिये. (२) एवं मृषावाद आक्षेपका, (३) एवं चौरी आक्षेपका, (४) एवं मैथुन आक्षेपका, (५) एवं नपुंसक आक्षेपका (६) एवं जातिहीन आक्षेपका-सर्व पूर्ववत् समजना. ___ (३) साधुके पावमें कांटा, खीला, फंस, काच-आदि भांगा हो, उस समय साधु निकालनेको विशुद्धि करनेको असमर्थ हो, औसी हालतमें साध्वी उस कांटा यावत् काचखंडको पसे निकाले, तो जिनाज्ञा उल्लंघन नहीं होता है. भावार्थ