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माता बहिन और पुत्री - ऊस साधुको ग्रहण करे. उसका कोमलस्पर्श हो तो अपने दिल में अकृत्य ( मैथुन ) भावना लावे तो गुरुचातुर्मासिक प्रायश्चित्त होता है.
(९०) एवं साध्वीको अपना पिता, भाइ या पुत्र ग्रहण कर सकें.
(११) साधु-साध्वीयोंको जो प्रथम पोरसीमें ग्रहण कीया हुवा अशनादि च्यार प्रकारके आहार, चरम ( बेल्ली ) पोरसी तक रखना तथा रखके भोगवना नहीं कल्पै. अगर अनजान (भूल) से रहभी जावे, तो उसको एकांत निजींव भूमिका देख परठे और आप भोगवे या दुसरे साधुवाँको देवे तो गुरु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त होता है.
(१२) साधु-साध्वीयोंको जो अशनादि च्यार प्रकार के आहार जिस ग्रामादिमें किया हो, उसीसे दोय कोस उपरांत ले जाना नहीं कल्पै. अगर भूलसे ले गया हो, तो पूर्ववत् परठ देना, परंतु नहीं परके आप भोगवे या अन्य साधुवों को देवे तो गुरुचातुर्मासिक प्रायश्चित आता है.
(१३) साधु-साध्वी भिक्षा ग्रहण करते हुवे, अगर अनजानसे दोषित आहार ग्रहण कीया, बादमें ज्ञात होनेपर उस दोषित आहारको स्वयं नहीं भोगवे, किन्तु कोइ नव दिक्षित साधु हो ( जिसको अबी बडी दीक्षा लेनी है ) उसको देना कल्पै. अगर भैसा न हो तो पूर्ववत् परठ देना चाहिये.
(१४) प्रथम और चरम तीर्थंकरों के साधुवोंके लीये