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(१८) (१८) हे भगवान ! ग्रामादिकेके अन्दर कितनेक मनुष्य अल्पारम्भीक अल्पपरिग्रहवाले जो धर्मी धर्मके पीछे चलनेवाले धर्मकेअर्थी, धर्मकेकेहनेवाले धर्मपालनेवाले धर्मकिसमाचारीके अन्दर चिन्तवना करनेवाले अच्छे सुद्धाचार सुंदरव्रत दुसरेके मला होनेमें आप मानन्द माननेवाले वह प्रणातिपातादि जो पाप वैपार तथा गृहकार्य आरम्भ सारम्भ संभारम्भादिकोसे कीतनेक अंस निवृति हुवा है कीतनेक अंस निवृत नही भी हूवा है अर्थात् स्थुलस्थुल कार्योंसे निवृति हुवा है शेष गृहकार्य करते भी है। एसा जो श्रादक है वह जीवानीव पुन्यपापाश्रवसंवर निर्जरा बन्ध मोक्ष यह नवतत्व और काइयादि पचवीस क्रियावोंकों गुरू महाराजसे हेतु सहित धारण करी है अर्थात ठोक तरहेसे जाणपाणा कीया है जिन्होंसे श्रावकोंकि श्रद्धा र मजबुत है वह श्रावक कीसी प्रकारके देवता दानव'दिकसे कीसी कीस्मकि साहिता नही इच्छते है और हजारों लाखो क्रोडोगम देवता एकत्र हो जानेपर भी उन्ही श्रावकोंकों धर्मसे क्षोभीत नही कर शके। वीतरागों के प्रवचनके अन्दर निःशंक है किसी भी परत्तकि इच्छा नही करते है। करणीका फकि किंचन् हो शंका नही है । और भी वे श्रावक लोग आगोंके अर्थकों ठीक तरेहसे प्राप्त किये है, ग्रहन किये है आगमोंके अथकी, शंका होनेसे या समझमे नही मानेसे पुच्छाकर निर्णय किया है, जिन्होंसे विशेष ज्ञाता होते हुवे सर्व शमयको च्छेदन किया है इन्होंसे हाड और हाइकि मींनी धर्म के अन्दर पूर्ण शासन रंगमे रंग दोवी है । वह श्रावक जो अर्थ तथा परमार्थ समझते है तो