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कोशों के मन्तर्गत उक्त सातों मध्यायों का विषय 'पूरी तरह समाविष्ट होता है या नहीं। इस महाग्रन्थ के विषय में इसी प्रकार की ओर भी सम्मतियां व्यक्त की जाती रही हैं। प्रो० एस. एन. दास गुप्ता प्रोर डा० एस. के. डे ने इस ग्रन्थ के रसरत्नकोश को अलंकार - शास्त्र का एक नगण्य कृति मात्र माना है ।" पं० वी. एन. भातखण्डे ने इस ग्रन्थ का नाम ही संगीतराजरत्नकोश माना है ।" इसी प्रकार महामहोपाध्याय कविराज श्यामलदान ने वीरविनोद में इसे संगीतराजवार्तिक नाम दिया है और कुछ अन्य विद्वानों ने महाराणा कुंभा के संगीतराज तथा संगीतमीमांसा को दो भलग-अलग ग्रन्थ माना है, यद्यपि अब सिद्ध हो चुका है कि ये दोनों नाम वस्तुतः एक ही ग्रन्थ के हैं। स्पष्ट है कि. इस प्रकार की सम्मतियां समग्र ग्रन्थ के प्रध्ययन पर आधारित न होने से भ्रामक हो जाती हैं; अतः संगीतराज के लेखक की मौलिकता का मूल्यांकन करने के लिए, हमें ग्रन्थ के सभी कोशों के प्रकाशन के लिए प्रतीक्षा करना भावश्यक है ।
अब तक संगीतराज के विषय में जो भी मत विद्वानों द्वारा व्यक्त किये गये हैं, उनमें डा० प्रेमलता शर्मा का सर्वाधिक अधिकारपूर्णं तथा महत्त्वपूर्ण कहा जा सकता है। उनका कहना है कि
"संगीतराज पाठक को कई दृष्टियों से प्राश्चर्यजनक तथा उत्कृष्ट कृति प्रतीत होता है। वह संगीत की जटिल समस्याओंों की व्याख्या की दृष्टि से परिपूर्ण है, विस्तार तथा उदाहरणों को समृद्धि की दृष्टि से उल्लेखनीय है तथा बृहत्संगीत की परिभाषाओंों का वैदिक-दर्शन की पूर्व एवं उत्तरमीमांसा के परिभाषाओं के साथ समन्वय करने में सक्षम है । अतः दोनों प्रकार की परिभाषात्रों के बीच पूर्ण आदान-प्रदान को स्थापित करके संगीतराज सचमुच एक उपवेद कहलाने का अधिकारी हो सकता है । 'उपवेद के रूप में संगीतराज केवल संगीत और नृत्य पर एक पाठ्य-पुस्तक मात्र न होकर, वस्तुतः वेद की उद्देश्यपूति के लिए लिखा गया है। इस उपवेद के यह दोहरे उद्देश्य की पूर्ति संगीतराज में पूर्णतया होने की भाशा
१. हिस्ट्री ऑफ संस्कृत लिट्र ेचर, जिल्द १, पृ० ५६६ ।
२. ए कम्पेरेटिव स्टेडी प्रॉव सम प्रॉव दी लीडिंग म्यूजिकल सिस्टम प्रॉफ दी १५, १६,
१७, १८ वीं शताब्दी, पृ० ३ ।
३. जिल्द १, पृ० ३३५ |
डॉ. गौरीशंकर हीराचंद मोझा कृत उदयपुर का इतिहास, पु० ३१, ६२५ इरिविलास शारदा कृत महाराणा कुंभा, पृष्ठ १६६ ।