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( ३४ ) उत्तर-देवता तो जिन-जिन तृण काष्टादिकों को स्पर्श करते
हैं, वे ही उनके अचिन्त्य पुण्य प्रभाव से शस्त्र बन जाते हैं और असुरों के तो उनके नित्यप्रति के विकुर्वित ही शस्त्र होते हैं क्योंकि देवों की अपेक्षा उनका पुण्य मन्द रहता है। इससे तृणादि पदार्थ स्पर्शमात्र से शस्त्ररूप नहीं बनते । यही बात श्री भगवती सूत्र के १८ वें
शतक के अन्तर्गत सप्तम उद्देश में कही है :यथा-देवासुरेसु णं भंते संग्गामेसु वट्टमाणेसु किं णं तेसिं
देवाणं पहरण रयणत्ताए परिणमंति, गोयमा० जण्णं ते देवा तणं वा कट्ठ वा पत्त वा सक्करं वा परामुसंति तंणं तेसिं देवाणं पहरणरमणत्ताए परिणमंति, जहेव देवाणं तहेव असुरकुमाराणं नो ति ण? सम? असुर कुमाराणं देवाणं णिच्चं विउविया पहरण रयणा पण्णत्ता।
-हे भगवन् ! देवों एवं असुरों का जब युद्ध होता है तब देवों के शस्त्ररत्न किस प्रकार के होते है ?
हे गौतम ! देव, तृण, काष्ठ, कंकर आदि किसी भी वस्तु का स्पर्श करते हैं, वे सब देवताओं के लिये शस्त्ररूप हो जाते हैं। __ शङ्का-जिस प्रकार ये वस्तुए स्पर्श मात्र से देवताओं के लिये शस्त्र रूप हो जाती हैं उसी प्रकार क्या असुर कुमारों के लिये भी होती हैं ?
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