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( १६ ) "दग्धरज्जुकल्पेन भवोपग्राहिणा कर्मणाल्पेनापि सता केवलिनोऽपि न मुक्तिमासादयन्ति ।"
-दग्धरज्जु के समान भबोपग्राही कर्म थोड़ा भी रहे तो केबली मुक्ति नहीं प्राप्त कर सकते; यहां भी अल्पपद ग्रहण करने से केवली समुद्घात के बाद का समय एवं चौदह गुण स्थान का समय ही सम्भव होता है।
इस आधार पर यह समझना चाहिये कि केवलियों के वेदनीयादिकर्म दग्धरज्जु के समान नहीं होते। प्रश्नः-१२-एकावतारी देवों के च्यवन चिन्ह प्रगट होते हैं
कि नहीं ? उत्तर- एकावतारी देवों के च्यवनचिन्ह प्रगट नहीं होते।
तीर्थकर जीवों के तो और भी विशेष रूप से सातावेदनीय रहतो है; जिसके सम्बन्ध मे परिशिष्ट पर्व में श्री हेमचन्द्राचार्य ने कहा हैराजन्नेकावताराणामन्तकालेऽपि नाकिनां । तेजः क्षयादिच्यवनलिंगान्याविर्भवन्ति न ।। -हे राजन ! एकाघतारी देवों के अन्तकाल के समय तेज क्षय आदि च्यवन चिन्ह प्रगट नहीं होते।
श्री शीलांकाचार्य ने भी सूत्र कृतांम की टीका में केवलो पाहार के अधिकार में इस प्रकार कहा है
"विपच्यमान तीर्थकरनाम्नो देवस्य च्यवनकाले पएमासकालं यावदत्यन्तं सातोदय एव ॥"
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