________________
( १५ )
इसी प्रकार का प्रादर सत्कार मय सद्व्यवहार अल्पऋद्धि वाले विवेकी मनुष्यों को जिन मन्दिर एवं उपाश्रय में महद्धिक मनुष्यों के साथ करना चाहिये। क्यों कि जैनधर्म का मूल विनय है । अन्यथा जो विनय नही करता है तो जिस प्रकार गृहस्थ जीवन में रहते हुए एक बार विद्वानों की सभा में श्रार्यरक्षित सूरिकी प्रज्ञता प्रगट हुई उसी प्रकार अविनयवश उसकी प्रज्ञानता दिखाई देती है ।
इस सम्बन्ध में विशेष आवश्यकवृति में उल्लेख किया गया है । पौषध विधि प्रकरण की टीका में तो वृहच्चेत्य वन्दन के अधिकार में यहां तक लिखा है कि चैत्यवन्दन के लिये आये हुए गुरुओं को भो नमस्कार करें। योगशास्त्र की टीका में तो "विस्तार विधिना चैत्ये सांधुवन्दनाधिकारी ज्ञातव्य :ऐसा कहा है । इसी प्रकार सिद्धान्त में भी कहा है कि श्री कृष्ण वासुदेव श्री नेमिनाथ स्वामी के समक्ष - " सव्वेसाहू वार सावत्त वंदरणेण वंदत्ति" समस्त साधुत्रों को द्वादशावर्त वन्दन करते हैं । इसी प्रकार चैत्य वन्दन भाष्य में खमासमरण देकर - "जाति के वि साहू" इत्यादि गाथा बोलने का कहा है इसलिये जिन मन्दिर में साधु आदि को वन्दन करना सर्वथा उचित है । इसलिये अपने आपको पण्डित मानने वाले जो कोई आधुनिक जिन मन्दिर में साधु वन्दन का निषेध करते है, उनका कथन अयथार्थ एवं तथ्य से हीन है । शास्त्रों में तो जिनमन्दिर में कुटुम्बीजनों को जुहार (रूड़िगत प्रणाम) करने का निषेध किया गया है ।
प्रश्न - १०. वर्तमान समय में दीक्षादि के अवसर पर आचार्य आदि उठकर शिष्यों के सिर पर वासक्षेप डालते हैं।
Aho ! Shrutgyanam