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श्री मद् प्रचाराङ्ग सूत्र के द्वितीय श्रुत स्कन्ध के छठे अध्ययन में भी इसी प्रकार का पाठ उपलब्ध होता है
:
" तो भगवं महावीरे, उत्पन्न नाण दंसणधरे० पुच्वं देवाणं धम्ममाइक्खड़ तो पच्छा मणुस्साणं तो ० गोयमाईणं समणा -- इत्यादि ।
- " तत्पश्चात उत्पन्न ज्ञान दर्शन को धारण करने वाले श्रमण भगवान् महावीर ने प्रथम देवताओं को पश्चात् मानवों को एवं उसके पश्चात् गौतम आदि मुनिराजों को धर्मोपदेश प्रदान किया ।"
इसका वास्तविक रहस्य क्या है, यह तो बहुश्रुत अथवा केवली भगवान् ही जाने ?
शङ्का - यदि भगवान् की प्रथम देशना में देवता ही आये थे तो इसमें प्राश्चर्य जैसी क्या बात है ? क्यों कि मनुष्यादि के प्रभाव में विरति कौन ग्रहण कर सकता है ?
समाधान - भगवान् की देशना में केवल देवों का ही आगमन तो आश्चर्यजनक ही है। इसलिये कि देवों में भी मिध्यात्व की विरति एवं सम्यक्त्व की प्राप्ति तो होती ही है । उस समय तो वह भी नहीं हुई ग्रतः प्राश्चर्य होना उचित है । इसके सम्बन्ध में आवश्यक सूत्र की वृहद् टीका में कहा है कि भगवान के धर्म देशना देने पर मनुष्य, सर्व विरति देश विरति, सम्यक्त्व, सामयिक, श्रुतसामयिक, में से किसी भी विरति को ग्रहण करते हैं । तिर्यञ्च सर्व विरति को छोड़कर सम्यक्त्व सामयिक एवं श्रुतसामयिक को ग्रहण करते हैं । यदि मनुष्य श्रथवा तिर्यञ्चों
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