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(२३) सन्निपातकलिका टबा, सं० १८३१, पाली (२४) कल्पसूत्र बालावबोध सं० १८११, बीदासर (२५) मुहूर्त मणिमाला सं० १८०१ (?) (२६) समुद्रबद्ध कवित, सं० १७६७, बीह्लाबास (२७) गौडो पाश्र्व छन्द गाथा ११३ (२८) जिन सुख सूरि मजलस-सं० १७७२ (२६) कल्याण मन्दिर टब्बा, सं० १८११ काला ऊना (३०) दुरियर स्तोत्र टबा सं १८१३ बिलाड़ा
रूपचन्दजी के सम्बन्ध में मेरा स्वतन्त्र लेख अनेकान्त व सप्तसिंधु में छप चुका है।
अन्य साधनों से ज्ञात होता है कि सम्वत् १८१० से पूर्व आपको वाचक पद प्राप्त था और सम्वत् १८२३ में आप उपाध्याय पद से अलंकृत हो चुके थे। सम्वत् १८१८ से २५ तक आप जिनचन्द्रसूरिजो के साथ ही विहार में रहे थे। विद्याध्ययन__ मेरे अनुमान से सम्वत् १८१८-२२ तक आपने उपाध्याय राजसोमजी के पास विद्याध्ययन किया। फिर राम विजय जो श्री जिनलाभसूरि के साथ थे उनके पास संवत् १८२५ तक या पीछे भो विद्याध्ययन किया होगा। विहार
सम्वत् १८२६ से १८४० तक वाचक अमृतधर्मजो श्री जिनलाभ सूरिज़ी एवं श्री जिनचन्द्र सूरिजी के साथ विचरे हैं। यथा सम्भव आप उस समय भी अपने गुरु के साथ थे।
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