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(१) उपाध्याय राजसोमजी
खरतरगच्छ की क्षेमकीर्तिशाखा में १८ वीं शताब्दी में उ० लक्ष्मोवल्लभ अच्छे विद्वान् और सुकवि हो गये हैं। उनके गुरू भ्राता वाचक सोमहर्षजो के शिष्य वाचक लक्ष्मीसमुद्र के शिष्य उ० कपूरप्रियजी के आप शिष्य थे। सम्वत् १७५४ में आप दीक्षित हुए। जन्म नाम राजू था। सम्वत् १८०१ के पूर्व आपको गच्छनायक की ओर से उपाध्याय पद प्रदान किया गया था। सम्वत् १८२५ में आप तत्कालीनगच्छ के समस्त उपाध्यायों में वृद्ध होने के कारण 'महोपाध्याय' पद से समलंकृत थे।
आपकी शिष्य परम्परा १९८० तक अविछिन्न चली आ रही थी, अब कोई विद्यमान नहीं रहा। आपके रचित कृतियें इस प्रकार है
१) श्रुतज्ञान पूजा (संस्कृत) २) सिद्धाचल स्तवन, गा० ४८ सं० १७६७ फा० व० ७ ३) नवकर वाली (१०८ गुण) स्तवन ४) सांगानेर पद्मप्रभ स्तवन, गा. २२ ५) उदर रासो, माथा ३४. ६) ग्रहलाघव सारणी टिप्पण (पत्र ६) ___ सम्वत् १७६४-१८०४ में लिखित आपकी प्रतियें भी बीकानेर भंडारो में है।
(२) उपाध्याय रामविजयजी (रूपचन्द)
खरतरगच्छ की क्षेमकोति शाखा में कविवर जिनहर्ष १८वीं शताब्दी के प्रसिद्ध कवि हो गये हैं। उनके शिष्य समाचंद (सुख
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