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होती है, अत: यह शुष्कवाद दोनों प्रकार से अनर्थ की वृद्धि करने वाला होता है। लाभ की इच्छा वाले, ख्याति की भावना वाले दुःस्थित दुर्जन के साथ जो छल एवं जाति हेत्वाभास रूपवाद किया जाय तो वह विवाद होता है। तत्ववादी को सन्नीति से इस विवाद में विजय मिलना दुर्लभ है । यदि कदाचित् विजय मिल भी जाय तो अदृष्ट रीति से हानिकारक एवं अन्तरायादि दोष रूप होती है। परलोक की प्रधानता माध्यस्थ के गुण एवं स्वशास्त्र को जानने वाले बुद्धिमान के साथ वाद करना धर्मवाद कहलाता है। इस धर्मवाद में विजय प्राप्त होने से धर्म की प्राप्ति एवं पराजय से मोह का नाश होता है । इस प्रकार धर्मवाद का फल जानना चाहिये । इन तीन प्रकार के वादों में कारण विशेष उपस्थित होने पर ही साधुओं को धर्मवाद करना चाहिये । परन्तु शुष्कवाद एवं विवाद नहीं करना । धर्मवाद भी साध्वियों के साथ नहीं करना चाहिये । इसी प्रकार साध्वियों को भी साधुओं के साथ वाद नहीं करना अभीष्ट है। यदि किया जाय तो प्रायश्चित आता है। इस आधार पर एक समाचारी वाले साधुओं के साथ एवं पाश्र्वस्थ आदि के साथ भी बिना कारण वाद नहीं करना चाहिये । कारण हो तो ही करना उचित है। श्री पंचकल्प चूर्णी में कहा है कि"संभोइनो संभोइएण समं वायं करेइ कारणे । परिक्खणा निमित्त संभोगो सो पुण ॥"
-सांभोगिक साधु के साथ कारणवश वाद करना उचित है। क्योंकि संभोग भी परीक्षा के निमित्त होता है । छल, जाति रूप हेत्वाभास रहित पक्ष एवं प्रतिपक्ष का ग्रहण करना, यही वाद कहलाता है।
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