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श्रुतस्कन्ध को धारण करती है और उससे श्रुतस्कन्ध ग्रहण करना हो तो उद्देश समुद्देशादि के समय साधु उसको व्यवहार फेटा वन्दन करे। न केवल अन्दर ही किन्तु साधु यदि श्रेणी से बाहर रहे हों तो भी उनके वन्दन को आश्रित कर भजना मानना चाहिये । अतः उनको भी वन्दन करना उचित है। यदि उन्हें वन्दन न किया जाय तो महान् दोष होता है, जैसे कि अजापालक उपाध्याय को वन्दन न करने से अगीतार्थ शिष्य दोष को प्राप्त हुए। प्रश्न ८६:-साधु साध्वी एवं गृहस्थ आदि का परस्पर वस्त्रादि
देने लेने का व्यवहार किस प्रकार होता है। उत्तर:--उत्सर्ग से साधु एक समाचारी वाली साध्वियों को
वस्त्र एवं पात्र दे सकते हैं और कोई कारण उपस्थित हो जाय तो आहार भी देना चाहिये, परन्तु साध्वियों से साधु कुछ भी ग्रहण न करे। इसी प्रकार गृहस्थों से वस्त्र आदि साधु साध्वी ले सकते हैं परन्तु उनको कुछ भी देना नहीं चाहिये । बिना कारण यदि कुछ दिया जाय तो प्रायश्चित लगताहै। ऐसे ही सांभोगिक साधुओं से आदान-प्रदान दोनों हो सकते हैं किन्तु पावस्थादि को न तो कुछ देना चाहिये और न उनसे कुछ लेना ही चाहिये। इस सम्बन्ध में श्री पञ्चकल्पचूणि में कहा है कि--
"दाणग्गहण संभोगे चउभंगो दान संभोगो नामेगो नो गहण संभोगो ॥१॥ दाण संभोगो उस्सग्गेण संजईण संजएहि वत्थपत्ताई दायव्याणि कारणम्मि य आहारो ताणंतिगे न किचिघेतव्वं गहण संभोगो ॥२॥ गिहत्थन्न
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