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सगर पुत्र के अधिकार में छठे सर्ग में पुनः भरताधिकार में कहा है, कि
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योजनान्ते योजनान्ते दण्डरत्नेन चक्रिराट् । चकाराष्टौ पदान्यस्मात् ख्यातः सोऽष्टापदो गिरिः ॥४॥
भरतचक्रवर्ती ने दण्डरत्न से एक एक योजन के प्रमाण वाले आठ सोपान बनाये इससे अष्टापद पर्वत प्रसिद्ध है ।
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प्रश्न ५३; - प्रष्टापद पर्वत के ऊपर सिंह निषद्या नाम के मन्दिर में चारों दिशाओं में अपने अपने वर्ण प्रमारण से युक्त चौवीसों तीर्थंकरों की प्रतिमायें भरतचक्रवर्ती ने स्थापित की हैं। वहाँ पूर्व दिशामें ऋषभ देव एवं अजित नाथ दोहैं, दक्षिण दिशा में सम्भवनाथ आदि चार, पश्चिम दिशा में सुपार्श्वनाथ आदि ग्राठ, उत्तर दिशा में धर्मनाथ याद दश इस प्रकार की संख्यासे स्थापन करने का क्या हेतु है ? ऋषभदेव एवं अजितनाथ का देहमान विशाल होने से एक दिशा में दो ही स्थापित हो सके । तत्पश्चात् क्रम से देहमान छोटा छोटा होने से चार आदि संख्या से स्थापित करना युक्तियुक्त है। अतएव देहमान का छोटा बड़ा होना ही इसमें कारण ज्ञात होता है । विशेष तो बहुत जो कहते हैं वही प्रमाण है ।
उत्तर :
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प्रश्न ५४:- श्री भगवती सूत्र के आठवें शतक के नवम उद्देश में कृत्रिम वस्तु की स्थिति संख्यात काल तक ही कही है, अतः अष्टापद पर्वत पर भरत चक्रवर्ती द्वारा बनवाई हुई प्रतिमानों का सद्भाव (अस्तित्व) आज कैसे विद्यमान है ? क्योंकि मध्य में असंख्यात कोटि कोटि वर्ष वाला
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