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________________ ( ८१ ) ज्ञान और ज्ञेय के ऐक्यमत मे अन्य भी अनेक दोष हैं, जैसे- ज्ञान और ज्ञेय में यदि अमेद माना जायगा तो पशु और मनुष्य में भी अभेद हो जायगा, क्योंकि उसके विना वे उक्त मत में एक ज्ञान के विषय न बन सकेंगे, कारण कि ज्ञान का विषय होने के लिए ज्ञान से अभिन्न होना आवश्यक है और एक ज्ञान का अभेदभिन्न दो वस्तुओं में हो नहीं सकता, इसलिए विज्ञानवाद में 'यह पशु है और यह मनुष्य है" इस समूहालम्बन ज्ञान के अनुरोध से पशु और मनुष्य में अभेद अपरिहार्य है । और उस दशा में पशुज्ञान तथा मनुष्यज्ञान की भिन्नाकारता का लोप होकर उनमें एकाकारता हो जायगी और फिर पशु तथा पशुज्ञान से मनुष्य तथा मनुष्यज्ञान के समस्त कार्य एवं मनुष्य तथा मनुष्यज्ञान से पशु तथा पशुज्ञान के समस्त कार्यों की उत्पत्ति का प्रसंग होगा जिसे लोकव्यवस्था का विघातक होने से कथमपि स्वीकार नहीं किया जा सकता । इस पर विज्ञानवादी की ओर से यह कहा जा सकता है कि उक्त आपत्तियाँ तब हो सकती थीं जब ज्ञान की समानरूपता कथा विभिन्नरूपता विषयमूलक होती और ज्ञान एवं ज्ञानाकार के कार्यों में भेद होता, पर विज्ञानवाद इसे स्वीकार नहीं करता, उसका सिद्धान्त तो यह है कि ज्ञान और उसके सन्तान प्रवाह क्षणिक, अगणित और परस्पर विलक्षण हैं, उनकी विलक्षणता भी उनके उन कारणों की देन है जो आकारभेद के साथ ही उन्हें जन्म प्रदान करते हैं और अपनी विलक्षणता अपने कारणों से अर्जित कर हैं। ज्ञान और ज्ञानाकार में एकता होने के नाते उनके कार्यों मे भेद नहीं होता । ऐसी स्थिति में यह स्पष्ट है कि अलग-अलग होने वाले पशुज्ञान और मनुष्य ज्ञान के आकारभूत पशु और मनुष्य जैसे परस्पर में भिन्न हैं वैसे ही समूहालम्बन एक ज्ञान के आकारभूत पशु और मनुष्य से भी भिन्न हैं । ज्ञान के आकाररूप विषय का अस्तित्व ज्ञान से पृथक् नहीं है, अतः ज्ञानाकार की सत्ता ज्ञान की सत्ता का सम्पादन करने वाले ज्ञानानुभव के अधीन ही है, अर्थात् ज्ञान का अनुभव जिस आकार में होता है उसी आकार में उसे स्वीकार करना उचित है । इसलिए यह आवश्यक नहीं है कि पशु और मनुष्य में एक दूसरे के समस्त कार्य करने की क्षमता होने पर ही उन दोनों का उनके समूहालम्बन ज्ञान के साथ अभेद हो और समूहालम्बन ज्ञान के समय उनका एकीभाव होने से अलग-अलग होने वाले ज्ञान के समय भी उनमें परस्पर भेद न हो । फलतः अपने अनुभव के 'आधार पर जैसे भिन्न-भिन्न पशुज्ञान और मनुष्यज्ञान व्यवस्थित हैं उसी प्रकार पशु और मनुष्य इन उभय आकारों से एक समूहालम्बन ज्ञान भी अपने अनुभव के आधार पर व्यवस्थित है । ६ न्या० ख० Aho ! Shrutgyanam
SR No.034199
Book TitleJain Nyaya Khanda Khadyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay, Badrinath Shukla
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1966
Total Pages200
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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