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________________ ( ७४ ) इस लिये व्यक्ति और जाति के बीच संयोग, कालिक, दैशिक, स्वरूप और समवाय सम्बन्ध न हो सकने के कारण और उनमें आश्रयाश्रितभाव अथवा विशेष्यविशेषणभाव के अनुरोध से कोई न कोई सम्बन्ध अवश्यमेव मानने की आवश्यकता के कारण उनके बीच अभेद सम्बन्ध की स्वीकृति अनिवार्य है । व्यक्ति से भिन्न जाति की कल्पना में गौरव दोष भी है। जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार हो सकता है । जो लोग गो आदि व्यक्तियों से भिन्न गोत्व आदि जातियों का अस्तित्व स्वीकार करते हैं वे लोग भी गोत्व आदि को केवल सामान्यरूप नहीं मानते किन्तु सामान्य विशेष रूप मानते हैं, क्योंकि गोत्व आदि जातियां यदि केवल सामान्यरूप होंगी तो गो आदि के अनुगत ज्ञान और अनुगत व्यवहार का साधन तो उनसे होगा परन्तु गो आदि में गो आदि से विजातीत पदार्थों के भेद का साधन न हो सकेगा, क्योंकि भेद का साधन सामान्य का कार्य न होकर विशेष का ही कार्य होता है । इसी प्रकार गोत्व आदि को केवल विशेषरूप भी नहीं माना जा सकता, क्योंकि केवल विशेषरूप मानने पर सामान्य के कार्य गो आदि के अनुगत ज्ञान और व्यवहार का साधन उनके द्वारा न हो सकेगा, इस लिये गोत्व आदि को सामान्य और विशेष उभयरूप ही ना पड़ता है | गोत्व आदि धर्म जिस समय विशेषत्व रूप से गृहीत होते हैं उस समय वे अपने आश्रय में अनुगत व्यवहार का साधन नहीं करते किन्तु अन्य पदार्थों के भेदज्ञान का ही साधन करते हैं, इस लिये उस दशा में उनसे अनुगत व्यवहार की आपत्ति का परिहार करने के लिये यह कल्पना करनी होगी कि जिस समय गोत्व आदि विशेषत्व रूप से गृहीत नहीं होते उसी समय उनको अनुगत व्यवहार की कारणता होती है, अर्थात् विशेषत्वरूप से अगृह्यमाण गोत्व आदि को गो आदि के अनुगत व्यवहार की कारणता होती है, गौरव है अतः इस कल्पना की अपेक्षा यह कल्पना सामान्यत्वरूप से गृह्यमाण गोत्व आदि को ही उक्त व्यवहार की कारणता है । अब यहाँ यह विचार स्वभावतः अवतीर्ण होता है कि जब गोत्व आदि अतिरिक्त वस्तु ' की कल्पना करने पर भी उनमें सामान्यत्व की कल्पना के द्वारा ही उनसे गो आदि के अनुगत व्यवहार का समर्थन करना पड़ता है तब उससे तो यही कल्पना अच्छी है कि गोत्व आदि कोई भिन्न सामान्य नहीं हैं किन्तु गो आदि व्यक्ति ही सामान्यरूप हैं, अतः वे स्वयं सामान्यत्वरूप से गो आदि के अनुगत व्यवहार का अर्जन करते हैं । परन्तु इस कल्पना में करने में लाघव है कि Aho ! Shrutgyanam
SR No.034199
Book TitleJain Nyaya Khanda Khadyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay, Badrinath Shukla
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1966
Total Pages200
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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