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परमाणु से ऊपर के सभी स्थूल जड़ पदार्थ द्रव्य और पर्याय दोनों होते हैं, परन्तु आत्मा द्रव्यरूप ही होता है पर्यायरूप नहीं होता ।
ऊपर किये गये वर्णन के अनुसार यद्यपि द्रव्यत्व और पर्यायत्व को ही आपेक्षिकरूपता स्पष्ट रूप से प्रतीत होती है तो भी द्रव्य और पर्यायों में द्रव्यत्व और पर्यायत्व का भेद न रहने के कारण द्रव्य को ऊर्ध्वता सामान्यरूप और द्रव्य तथा पर्याय को आपेक्षिकरूप माना जाता है ।
जो युक्ति ऊर्ध्वता सामान्य के साधनार्थ बतायी गयी है उसी अथवा वैसी ही युक्ति से तिर्यक् सामान्य का भी साधन होता है, अर्थात् जैसे विभिन्न दिशाओं और समयों में अनुगत रूप से ऊर्ध्वता सामान्य सिद्ध होता है वैसे ही विभिन्न देशों-घट आदि पदार्थों में अनुगत रूप से तिर्यक् सामान्य की भी सिद्धि अनिवार्य है ।
ऊर्ध्वता सामान्य और तिर्यक् सामान्य दोनों के विषय में यह बात नहीं भूलनी चाहिये कि वे दोनों अपने आश्रय से अत्यन्त भिन्न नहीं होते, अर्थात् कथंचित् भिन्न और कथंचित् अभिन्न भी होते हैं । यदि यह भेदाभेद न माना जायगा तो उक्त सामान्यों में और उनके आश्रयों में धर्मधमिभाव अथवा आश्रिताश्रयभाव नहीं हो सकेगा, क्योंकि अत्यन्त अभेद में आश्रिताश्रयभाव नहीं होता, जैसे तद्धट का आश्रय तद्धट नहीं होता, एवम् अत्यन्त भेद में भी आश्रिताश्रयभाव नहीं होता, जैसे घट पटत्व का आश्रय नहीं होता ।
सम्बन्ध एव समवायहतेर्न जातिव्यक्तयोरभेदविरहेऽपि च धर्मिक्लृप्तौ । स्याद् गौरवं ह्यनुगतव्यवहारपक्षेऽन्यो" न्याश्रयोऽनुगतजातिनिमित्तके च ।। ३१ ।।
इस श्लोक में जाति और व्यक्ति-जाति के आश्रय में अभेद सिद्ध करने वाले प्रमाण और युक्ति का वर्णन किया गया है, जो इस प्रकार है ।
व्यक्ति जाति का आश्रय है, अथवा जाति व्यक्ति में आश्रित है, एवं व्यक्ति जाति से विशिष्ट है इन प्रामाणिक प्रतीतियों के अनुसार व्यक्ति और जाति में आश्रयाश्रित भाव अथवा विशेष्यविशेषणभाव माना जाता है, अतः व्यक्ति और जाति में सम्बन्ध मानना आवश्यक है, क्योंकि जिन वस्तुओं में परस्पर-सम्बन्ध नहीं होता उनमें आश्रयाश्रित भाव अथवा विशेष्य-विशेषणभाव नहीं होता, यदि सम्बन्ध के बिना आश्रयाश्रितभाव माना जायगा तो सब
वस्तुओं में सब की जो किसी भी शास्त्र
सांकयं हो जायगा,
यता हो जाने से समूचे विश्व में की दृष्टि में उचित नहीं है ।
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