SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 84
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ६६ ) श्यामत्व आदि के भेदसमूहों का अस्तित्व घट में हो सकने के कारण उनका अभाव घट में निर्बाध रूप से आश्रित है, क्योंकि समूहान्तर्गत कतिपय की विद्यमानता में भी तदन्तर्गत अन्य व्यक्ति का अभाव होने से समूह का अभाव सम्पन्न हो जाता है। इस प्रकार श्यामघट की तत्ता का रक्तघट में सम्बन्ध सम्भव होने के कारण तत्तारूप से उल्लिख्यमान श्यामघट के उक्त अभेद का रक्तघट में अवगाहन करने वाली प्रत्यभिज्ञा की प्रमाणता और तद्व्यक्ति की अभेदभासकता एवं सन्मुख वस्तु में तद्व्यक्तिरूपता के संशय की निवारकता का समर्थन हो जाता है। तत्ताश्रयरूप तद्व्यक्ति के ऊोक्त अभेद का भान किस रूप से होता है, यह एक विचारान्तर है, वह स्वरूपतः अर्थात् प्रतियोगी से अविशेषित होकर संसर्गरूप से भासमान हो सकता है, और यदि अभेद को तादात्म्य-रूप अतिरिक्त सम्बन्ध माना जाय तो उस रूप से भी उसका भान स्वीकार किया जा सकता है। इसी प्रकार यदि अभेद को तद्व्यक्तिरूप माना जाय एवं तद्व्यक्ति को सामान्यविशेषात्मक अथवा धमिधर्मात्मक माना जाय तो उस रूप से भी उसका भान मानने में कोई बाधा नहीं है। तात्पर्य यह है कि तव्यक्ति के अभेद का जो कुछ भी स्वरूप विचारभेद से निर्धारित होगा उस स्वरूप में उसका भान स्वीकार्य हो सकता है। अतः उसका किस रूप से भान होता है इस विचारान्तर का प्रत्यभिज्ञा की प्रमाणता के परीक्षण में कोई महत्त्वपूर्ण स्थान नहीं है। यहाँ तो इतना ही देखना है कि प्रत्यभिज्ञा को तद्व्यक्ति के अभेद की प्रकाशकता सम्भव है ण नहीं ? जिसका कुछ विवेचन इस पद्य के व्याख्यान में तथा विशेष विवेचन इससे पूर्व के पद्यों के व्याख्यान में आ गया है। पर्यायतो युगपदप्युपलब्धमेदं किं न क्रमेऽपि हि तथेति विचारशाली। स्याद्वादमेव भवतः श्रयते स भेदाभेद क्रमेण किमु न स्फुटयुक्तियुक्तम् ॥ २७॥ हे भगवन् ! इस प्रसङ्ग में जो व्यक्ति इस प्रकार विचार करने को प्रवृत्त होता है कि जब वही वस्तु सहभावी विभिन्न पर्यायों की दृष्टि से उसी से भिन्न होकर प्रतिष्ठित होती है तब वह क्रमभावी पर्यायों की विभिन्नता से भिन्न क्यों न होगी, क्या वह वस्तु में भेद और अभेद दोनों को प्रश्रय देकर आप के उस स्याद्वाद के आश्रय में नहीं आ जाता जिसे लौकिक और शास्त्रीय युक्तियाँ सुप्रतिष्ठित करती हैं, अर्थात् उसी का भिन्न कालिक पर्यायों के द्वारा अथवा Aho! Shrutgyanam
SR No.034199
Book TitleJain Nyaya Khanda Khadyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay, Badrinath Shukla
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1966
Total Pages200
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy