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________________ ( ५२ ) ही है, अतः भाव-मात्र के दूसरे क्षण में उसका नाश उत्पन्न होने से भाव मात्र की क्षणिकता सिद्ध होती है । क्षणिकता के साधन की यह युक्ति भी अच्छी नहीं है, क्योंकि इस प्रतिपादन में भी यह प्रश्न उठता है कि भाव का कार्य भाव के अस्तित्व का विरोधी है या नहीं ? यदि नहीं, तो भाव-कार्य-रूप भावनाश के साथ भी भाव के रहने में कोई बाधा न रहने से भाव की स्थिरता का दुर्वार प्रसङ्ग होगा, और यदि भाव-कार्य को भावास्तित्व का विरोधी माना जायगा तो तीसरे क्षण में होने वाले द्वितीय-क्षणस्थ-भाव के कार्य से प्रथम-क्षणस्थ भाव के विनाश-रूप द्वितीयक्षणस्थ-भाव का नाश हो जाने से तीसरे क्षण मे प्रथम-क्षणस्थ-भाव का पुनर्जन्म या पुनर्भाव हो जायगा। ___ यदि इस पर यह कहा जाय कि भावनाश की निवृत्ति हो जाने से भाव के अस्तित्व की आपत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि भाव के अस्तित्व का सम्पादक भाव का कारण होता है न कि भावनाश की निवृत्ति, अन्यथा पहले भाव का अस्तित्व कैसे होता ? अतः भावनाश की निवृत्ति होने पर भी भाव का कारण न रहने से तीसरे क्षण में प्रथम-क्षणस्थ भाव का पुनः अस्तित्व नहीं हो सकता । यह कथन भी ठीक नहीं है क्योंकि भाव और उसके नाश में विरोध है अतः एक की निवृत्ति होने पर दूसरे का अस्तित्व आवश्यक है। जब जिस भाव का नाश नहीं रहता तब वह भाव या उसकी पूर्वावस्था अर्थात् उसका प्रागभाव रहता है । नष्ट भाव का बाद में न अस्तित्व ही माना जा सकता और न प्रागभाव ही, क्योंकि अस्तित्व मानने पर प्रत्यक्ष का और प्रागभाव मानने पर पुनर्जन्म का प्रसङ्ग होता है। द्रव्यार्थतो घटपटादिषु सर्वसिद्धमध्य क्षमेव हि तव स्थिरसिद्धिमूलम् । तच्च प्रमाणविधया तदिदन्त्वभेदा भेदावगाहि नयतस्तभेदशालि ॥ २२ ॥ हे भगवन् ! तुम्हारे मत में “सोऽयम्'-वह यह हैं, अर्थात् उस स्थान और उस समय की वस्तु तथा इस स्थान और इस समय की वस्तु अभिन्न है-एक है, यह सार्वजनीन प्रत्यक्ष ही घट, पट आदि पदार्थों के द्रव्यांश की स्थिरता के साधन का मूल है । तात्पर्य यह है कि यद्मपि घट, पट आदि पदार्थ प्रतिक्षण में उत्पन्न-विनष्ट होने वाले अपने अनन्त धर्मों के रूप में बदलते हुये प्रतीत होने से अस्थायी माने जा सकते हैं। तथापि किसी एक रूप से उनकी स्थायिता भी मानना अनिवार्य रूप से आवश्यक है। ऐसा मानने पर Aho ! Shrutgyanam
SR No.034199
Book TitleJain Nyaya Khanda Khadyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay, Badrinath Shukla
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1966
Total Pages200
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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