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________________ ( २८ ) विशिष्ट का भेद जैसे स्वीकार किया जाता है उसी प्रकार तत्कार्यकरणविशिष्ट में तत्कार्याकरणविशिष्ट का भेद माना जा सकता है । परन्तु यह भेद व्यक्ति के द्वैत का साधक नहीं हो सकता । अतः इस प्रकार का भेद मानने पर भी क्षणिकता की सिद्धि नहीं हो सकती । काले च दिश्यपि यदि स्वगुणैर्विरोधो, बाह्यो न कोऽपि हि तदा व्यवतिष्ठतेऽर्थः । सौत्रान्तिको व्यवहरेत् कथमिस्थमुच्चै त्वन्मतद्रुहमहो वृणुते जयश्रीः ॥ १४ ॥ कालभेद और देशभेद से तत्कार्यकरण और तत्कार्याकरण ऐसे जिन गुणोंधर्मों का एक व्यक्ति में सहभाव प्राप्त होता है उनका भी परस्पर में विरोधअसहभाव मानकर यदि उन्हें अपने आश्रयों का भेदक माना जायगा तो किसी भी बाह्य वस्तु की सिद्धि न होगी । । अब यदि इस उत्पा तात्पर्य यह है कि जिस क्षणिक बीज की बाह्यसत्ता सौत्रान्तिक जैसे बौद्धों को मान्य है उसकी भी सिद्धि नहीं होगी, क्योंकि वह क्षणिक बीज भी अपने देश एवं अपने काल में ही अपने कार्य का उत्पादक होता है और अन्य देश एवं अन्य काल में उसका उत्पादक नहीं होता । इस प्रकार एक ही क्षणिक बीज में अपने कार्य की उत्पादकता और अनुत्पादकता प्राप्त होती है दकता और अनुत्पादकता में पारस्परिक विरोध मान कर एक के आश्रय को दूसरे के आश्रय से भिन्न माना जायगा तो इन धर्मो का आश्रय वह एक ही बीज उसी से भिन्न हो जायगा, और उसका उसी से भिन्न हो जाने का अर्थ होगा उसका न होना । इस प्रकार स्थिर वस्तु के समान क्षणिक वस्तु की भी बाह्यसत्ता का लोप हो जायगा । इस स्थिति में बाह्यवस्तु की सत्ता के आधार पर सौत्रान्तिक कार्यकारणभाव आदि जिन व्यवहारों को उच्च स्वर से स्वीकार करता है उनकी उपपत्ति नहीं होगी । इसलिये हे भगवन् ! यह बड़े आश्चर्य की बात है कि सूक्ष्मदृष्टि से वस्तुतत्त्व का विचार करने में सिद्धहस्त भी सौत्रान्तिक को विजयश्री वरण नहीं करती क्योंकि तुम्हारे सिद्धान्त का विरोध करने के कारण वस्तुस्वरूप का याथातथ्येन वर्णन करने में यह उसे अयोग्य पाती है | इस श्लोक में जिस बौद्धशङ्का का समाधान किया गया है वह इस प्रकार है । पूर्व श्लोक में काल-भेद से एक व्यक्ति में एक ही कार्य के करण और अकरण के अविरोध का उपपादन किया गया है। उस पर बौद्ध की शङ्का यह है कि Aho ! Shrutgyanam
SR No.034199
Book TitleJain Nyaya Khanda Khadyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay, Badrinath Shukla
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1966
Total Pages200
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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