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________________ परस्परविरोधी भाव और अभावरूप पदार्थों का एकजातीय व्यक्तियों में समावेश मान्य हो सकता है अर्थात् बीजत्वजाति के किसी आश्रय में अङ्करोत्पादकता और किसी अन्य आश्रय में अङ्करानुत्पादकता मानने में बाधा नहीं है । जैसे क्षेत्रस्थ बीज में अङ्करोत्पादकता और कुसूलस्थ बीज में अङ्करानुत्पादकता । किन्तु एक व्यक्ति में परस्परविरोधी पदार्थों का अस्तित्व नहीं स्वीकार किया जा सकता । क्योंकि वैसा स्वीकार कर लेने पर उन पदार्थो का एकत्र न रहने रूप विरोध की ही समाप्ति हो जायगी, अतः अङ्कुरोत्पादक बीज को अङ्करानुत्पादक बीज से भिन्न मानना होगा और इसी प्रकार प्रथमक्षणभावी कार्य के उत्पादक प्रथमक्षणस्थ पदार्थ को द्वितीयक्षणभावी कार्य के उत्पादक-प्रथमक्षणस्थ कार्य के अनुत्पादक द्वितीयक्षणस्थ पदार्थ से भिन्न माना जायगा। फलतः पदार्थ की क्षणिकता सिद्ध होगी। इस बौद्ध कथन का उत्तर इस श्लोक में यह दिया गया कि जैसे एकजातीय पदार्थ में परस्पर विरोधी धर्मों का समावेश होता है उसी प्रकार एक व्यक्ति में भी निमित्तभेद से उनका समावेश हो सकता है। जैसे जिस बीज में सहकारी कारणों के सन्निधानकाल में अङ्करोत्पादकता है उसी बीज में सहकारी कारणों के असन्निधानकाल में अङ्करानुत्पादकता मानने में कोई असङ्गति नहीं है, क्योंकि भावाभावात्मक पदार्थों का एक काल में एकत्र असहभाव का नियम है । अतः कालरूप निमित्त के भेद से भावाभावात्मक पदार्थों का अस्तित्व एक व्यक्ति में कथमपि असङ्गत नहीं हो सकता। परिणामतः भावाभावात्मक धर्मों के बल से उनके आश्रयो में भेद नहीं माना जा सकता। ... बौद्ध करण और अकरण को परस्पर विरुद्ध मानकर उनके आश्रय व्यक्तियों को परस्पर भिन्न मानते हैं, परन्तु स्थैर्यवादी के विचार से यह ठीक नहीं है, क्योंकि उन दोनों धर्मों का परस्पर में कोई विरोध ही नहीं है। E विरोध का अर्थ है-असहभाव- एक साथ न रहना, वह दो प्रकार का होता है कालगत और देशगत, कालगत विरोध का अर्थ है एक काल में न रहना, से घट और घटध्वंस में कालगत विरोध है, जिस काल में घट रहता है उस काल में उसका ध्वंस नहीं रहता और जिस काल में उस घट का ध्वंस रहता है उस काल में वह घट नहीं रहता। देशगत विरोध का अर्थ है - एक विश-स्थान में न रहना, जैसे मनुष्यत्व और मनुष्यत्वाभाव में देशगत विरोध मनुष्यत्व जिस स्थान में मनुष्य मे रहता है उसमें उसका अभाव नहीं रहला । और मनुष्यत्वाभाव जिस स्थान में-पशु में रहता है उसमें मनुष्यत्व नहीं रहता। Aho! Shrutgyanam
SR No.034199
Book TitleJain Nyaya Khanda Khadyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay, Badrinath Shukla
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1966
Total Pages200
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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