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जाति मानकर उस रूप से ही बीज को अङ्कुर के प्रति कारण मानना उचित है।
उस कुर्वत्व से युक्त बीज को क्षणिक मानना होगा अन्यथा यदि उसे स्थायी माना जायगा तो अपनी स्थिति के सभी क्षणों में अङ्कुर का जनन न करने के कारण उसे सहकारी से असन्निहित भी मानना होगा । और ऐसा मानने से समर्थकारण अपना कार्य करने में विलम्ब नहीं करता इस नियम का विधात कुर्वत्व की कल्पना से भी न रोका जा सकेगा ।
कुर्वद्रूपत्व से युक्त बीज ही अङ्कुर का कारण है और क्षणिक है । कुर्वद्रूपत्व के विषय में इतना ही कहा जा सकता है कि बौद्ध के होने से अभावात्मक है और नैयायिक के मत में भावात्मक ।
इसलिये ऊपर लिखी गयी बातों के आधार पर यह निष्कर्ष निकलता है कि तथा वह सहकारियों से युक्त बौद्ध और नैयायिकों के मतों में भेद मत में वह अपोह - अतद्व्यावृति-रूप
उक्त वक्तव्य का खण्डन -
कुर्वद्रूपत्व के बल से बीज आदि वस्तुओं की क्षणिकता का साधन नहीं किया जा सकता क्योंकि वह स्वयं प्रत्यक्ष या अनुमान से नहीं सिद्ध होता । उसकी अप्रत्यक्षता तो तद्विषयक विवाद से ही सिद्ध है और अनेक दोषों से ग्रस्त होने के कारण अनुमान भी उसके साधन में असमर्थ है क्योंकि अनुमान में उसे पक्ष करने पर आश्रयासिद्धि और साध्य करने पर व्याप्य - त्वासिद्धि होगी। इसके अतिरिक्त उसकी सिद्धि में दूसरा बाधक यह है कि यदि कूर्वद्रूपत्व से युक्त बीजों को ही अङ्कुर का कारण माना जायगा और उसकी सत्ता सहकारियों से असन्निहित बीजों में न मानी जायगी तो कुसूल आदि स्थानों में रखे बीज के हुए अङ्कुर कारण न होंगे, फलतः उनमें अङ्कुर की कारणता का ज्ञान न हो सकने से अङ्कुरार्थी कृषक की उनके ग्रहण और संरक्षण में प्रवृत्ति न होगी क्योंकि प्रवृत्ति के प्रति इष्ट वस्तु की कारणता का ज्ञान आवश्यक माना गया है । अतः सहकारि-शून्य बीजादि के संरक्षण में प्रवृत्ति के उपादनार्थं बीजसामान्य को अङ्कुर के प्रति कारण मानना उचित है । इस प्रकार की कारणता मानने में यह जो बाधक बताया गया था
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विलम्ब नहीं किया
कि ऐसा मानने पर समर्थकारण अपने कार्य को करने में करता- - इस नियम का विघात होगा, वह ठीक नहीं है, वाक्य में आये हुए समर्थ शब्द का अर्थ सहकारिसम्पन्न है ।
क्योंकि उक्त नियम
अतः नियम का आकार यह होता है कि सहकारी कारणों से युक्त कारण अपने कार्य के जनन में बिलम्ब नहीं करता, और इसकी उपपत्ति बीज सामान्य को
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