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________________ ( १४ ) और विपरीतानुमान जैनशास्त्र का विरोध नहीं कर पाते। क्योंकि वे वस्तु के जिस जिस रूप का साधन करने के लिये प्रवृत्त होते हैं । वे सभी स्याद्वाद के आधार पर दृष्टि भेद से जैनशासन में स्वीकृत कर लिये जाते हैं । प्रकृत में जो विचार चल रहा है और जिसमें विश्व की क्षणिकता सिद्ध करने का बौद्धप्रयास और स्थिरता सिद्ध करने का नैयायिक प्रयास इन दोनों का सम्मिलन है, उसमें जैन शासन हस्तक्षेप करके दृष्टिभेद से उन दोनों धर्मो के अस्तित्व का समर्थन कर अविरोध स्थापित कर देता है और उसके इस प्रयत्न का विरोध बौद्ध या नैयायिक नहीं कर पाते, क्योंकि यह अपनी योग्यता से उन दोनों का समादर कर उनके सम्मान का अधिकारी बन जाता है । हाँ, जब शुद्ध द्रव्य में क्षणिकता के साधनार्थ बौद्ध और प्रतिक्षण आगमापायी अनेक पयायों से विशिष्ट द्रव्य में स्थिरता के साधनार्थ नैयायिक प्रयास करते लगते हैं तब प्रमाणाभाव और अनुभवविरोध आदि बता कर जैन शासन उन प्रयासों को व्यर्थ कर देता है, अतः जैन शासन ही अन्य सभी शास्त्रों पर विजय और प्रतिष्ठा प्राप्त करता है । जात्यन्तरेण मिलिते न विभो ? समर्थ क्षेपां न युज्यत इति क्षणिकत्वसिद्धिः । जात्यन्तराननुभवादपि न प्रवृत्तिः सामान्यतो हि घटते फलहेतुभावात् ॥ १० ॥ “समर्थं कारण अपने कार्य को पैदा करने में बिलम्ब नहीं करता " इस नियम के अनुसार अङ्कुर को पैदा करने वाले बीजों में ही कुरसामर्थ्य मानना पड़ता है और उसके नियमनार्थ उनमें कुर्वद्रूपत्व नाम का जात्यन्तर भी मानना आवश्यक होता है । परन्तु यह बात उस जात्यन्तर से युक्त व्यक्तियों को क्षणिक माने विना नहीं उपपन्न हो सकती अतः उन्हें क्षणिक मानना परमावश्यक हो जाता है, इस प्रकार प्रत्येक वस्तु की क्षणिकताका साधन बौद्ध करते हैं, पर हे प्रभो ? क्षणिकता के साधन का उनका यह मार्ग युक्तिसङ्गत नहीं है क्योंकि अङ्कुर पैदा करने वाले बीजों में प्रत्यक्ष या अनुमान द्वारा उस जात्यन्तर का अनुभव नहीं होता, इसके अतिरिक्त उस जाति से युक्त बीजों को कृषक की ही अङ्कुर का कारण मानने पर अङ्कुर पैदा करने की इच्छा वाले कुसूलस्थित बीज जो उस जाति से शून्य होने के नाते अङ्कुर के कारण नहीं कहे जा सकते उनके संरक्षण एवं वपन में प्रवृत्ति न होगी, क्योंकि "जिस वस्तु की इच्छा मनुष्य को होती है उसकी कारणताका ज्ञान जिसमें होता है उसी के ग्रहण और संरक्षण में उसकी प्रवृत्ति होती है" यह नियम है । इसलिये Aho ! Shrutgyanam
SR No.034199
Book TitleJain Nyaya Khanda Khadyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay, Badrinath Shukla
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1966
Total Pages200
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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