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________________ इस बौद्ध विचार के खण्डन का प्रकार यह है- जिस तर्क और विपरीतानुमान के बल से शीघ्रकारित्व - स्वभाव का साधन बौद्धों ने करना चाहा है वह अन्योन्याश्रय दोष से ग्रस्त है, क्योंकि कथित तर्क में उक्त स्वभाव का अभाव आपादक एवं विपरीतानुमान में उक्त स्वभाव साध्य है अतः उन दोनों के लिये उक्त स्वभाव की सिद्धि अपेक्षित है और उसकी सिद्धि के लिये वे तर्क और विपरीतानुमान अपेक्षित हैं। इसलिये सहकारी कारणों का सन्निधान होते ही कार्य को उत्पन्न करना और उनका सन्निधान न होने तक कार्य को उत्पन्न न करना इस प्रकार के शीघ्रकारित्व और बिलम्बकारित्व इन दोनों को ही वस्तु का स्वभाव मानना चाहिये और इस प्रकार के स्वभाव के लिये कुर्वद्रूपत्व की कल्पना की कोई आवश्यकता नहीं है क्योंकि बीजसामान्य को अङ्कर का कारण मानने ही पर उक्त स्वभाव की उपपत्ति होती है। - चौथे सहकारिविरहप्रयुक्तकार्याभाव अर्थात् सहकारी का सन्निधान न होने के कारण कार्य की अनुत्पादकता को सामर्थ्यशब्द से ग्रहण करने पर तक का स्वरूप यह होगा- कुसूलस्थ बीज यदि सहकारी के असन्निधान के नाते अङ्कर का अनुत्पादक हो तो उसके असन्निधान में ही अङ्कुर को पैदा करे । किन्तु इसमें स्वरूपव्याघात स्पष्ट है, क्योंकि सहकारी के असन्निधान के कारण ही होने वाली अङ्कर की अनुत्पादकता अपने विघातक सहकारी के असन्निधान में अंकुर की उत्पादकता का आपादन नहीं कर सकती। न त्वद्र्हो भवति चेप्सितसाध्यसिद्धि. मुख्यात् समर्थविषयव्यवहारतोऽपि । भूग्ना स जन्मविषयोऽपि हि योग्यतोत्थो व्याप्तिस्तु हेतुसहकारिविशेषलभ्या ॥७॥ भगवन् ! आपका द्रोही बौद्ध जिस साध्य का साधन करना चाहता है उसकी सिद्धि मुख्य समर्थव्यवहार के द्वारा भी नहीं हो सकती क्योंकि कार्यकारिता-कार्य की उत्पादकता-की व्याप्ति सहकारि वर्ग से युक्त हेतु में ही होती है न कि मुख्य समर्थव्यवहार पें, क्योंकि वह व्यवहार बाहुल्येन कार्य-जन्म को ही विषय करने पर भी स्वरूपयोग्यता से ही उत्थित होता है। जैनशासन के प्रवर्तक महापुरुष ने वस्तु का वास्तविक स्वरूप निश्चय करने के लिये जिस स्या द्वाद का अभ्युपगम किया है। उसके अङ्गभूत नयदृष्टिभेद अनेक हैं। उन सभी नयों के सहारे वस्तु का स्वरूप स्थिर करने वाले विद्वान् उस महापुरुष के आत्मीय माने जाते हैं और जो उनमें किसी एक ही नय पर निर्भर हो वस्तु का विचार एवं उसके स्वरूप का अवधारण करते हैं Aho! Shrutgyanam
SR No.034199
Book TitleJain Nyaya Khanda Khadyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay, Badrinath Shukla
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1966
Total Pages200
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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