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इदमनवमं स्तोत्रं चक्रे महाबल ! यन्मयातव नवनवैस्तद्ग्राहैर्भृशं कृतविस्मयम् । तत इद्द वृहत्तर्कप्रन्थधमैरपि दुर्लभां
कलयतु] कृती धन्यम्मन्यो यशोविजयश्रियम् ॥ १०६ ॥
ग्रन्थकार का कहना है कि उन्होंने नये नये तर्कों के प्रयोग से महाबलशाली भगवान् इस अत्यन्त आश्चर्यकारी और सर्वोत्तम स्तोत्र की रचना की है । इसलिये अपने को धन्य मानने वाला कोई भी विद्वान् तर्कशास्त्र के बड़े बड़े ग्रन्थों का श्रमपूर्वक अध्ययन करने पर भी न प्राप्त होने वाली यशोविजय की श्री को इस स्तोत्र ग्रन्थ में प्राप्त कर सकता है ।
स्थाने जाने नात्र युक्तिं ब्रुवेऽहं
बाणी पाणी योजयन्ती यदाह । धृत्वा बोधं निर्विरोधं बुधेन्द्रा
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स्त्यक्त्वा क्रोधं प्रन्थशोधं कुरुध्वम् ।। १०७ ॥
ग्रन्थकार का कहना है कि वे इस बात को भले प्रकार समझते हैं और ठीक समझते हैं कि इस ग्रन्थ में परमत का निराकरण और स्वमत के स्थापन के लिये जो युक्ति प्रस्तुत की गई है वह उनकी अपनी सूझ नहीं है, क्योंकि उसके प्रयोग के समय स्वयं सरस्वती करबद्ध हो विद्वानों से निवेदन किया करती थीं कि वे निर्विरोध भाव से इस ग्रन्थ को समझने का कष्ट करें और यदि कहीं कोई त्रुटि प्रतीत हो तो उस पर क्रोध न कर सिद्धान्तानुसार उसका संशोधन कर
लें
प्रबन्धाः प्राचीनाः परिचयमिताः खेलतितरां
नवीना तर्काली हृदि विदितमेतत्कविकुले |
असौ जैनः काशीविबुधविजय प्राप्तविरुदो
मुदो यच्छत्यच्छः समयनयमीमांसितजुषाम् ॥ १०८ ॥
यह विद्वत्समाज को ज्ञात है कि इस ग्रन्थकार ने पुराने सभी शास्त्रग्रन्थों का समीचीन परिचय प्राप्त किया है और साथ ही इसके हृदय में नई नई तर्कमालायें निरन्तर नृत्य करती रहती हैं । यही कारण है
कि ज्ञान और चरित्र
प्राप्त कर न्याय
से स्वच्छ यह जैन ग्रन्थकार काशी के विद्वानों पर विजय विशारद के विरुद से विभूषित हो समय और नय की
मीमांसा करने वाले
मनीषियों को मुदित करने के निमित्त इस ग्रन्थ की रचना में उद्यत हुआ ।
おとみ
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