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________________ ( १७६ ) के विविध आवर्तनों के संसर्ग होते रहते हैं, चित्समुद्र आत्मा में उनकी स्थिति ठीक वही है जो जल के महासमुद्र में वेग से उत्थान-पतन को प्राप्त करने वाले उसके उद्रिक्त तरङ्गों की होती है । कहने का आशय यह है कि जैसे समुद्र और उसके तरङ्गों को एक दूसरे से भिन्न प्रमाणित नहीं किया जा सकता उसी प्रकार चिद्रूप आत्मा और उसके अनन्तानन्त पर्यायों को भी एक दूसरे से भिन्न नहीं सिद्ध किया जा सकता । अर्थात् छोटे बड़े अगणित तरङ्गों की' समष्टि से आवेष्टित जल ही जैसे समुद्र का अपना स्वरूप है वैसे ही आगमापायी स्व, पर अनन्त पर्यायों से आलिङ्गित चित् ही आत्मा का अपना वास्तव स्वरूप है । विरुद्धमतवादियों द्वारा बड़े आग्रह से जिन धर्मो का आरोप किया जाता है वे आत्मा के स्वरूपनिर्वर्तक नहीं हो सकते । न बद्धो नो मुक्तो न भवति मुमुक्षुर्न विरतो, न सिद्धः साध्यो वा व्युपरतविघर्तव्यतिकरः । असावात्मा नित्यः परिणमदनन्ताविरत चि चमत्कारस्फारः स्फुरति भवतो निश्चयनये ॥ १०१ ॥ भगवान् महावीर के निश्चयनय के अनुसार आत्मा न बद्ध है, न मुक्त है, न मोक्ष का इच्छुक है, न कर्मविरत है, न सिद्ध है और न साध्य है, उसमें किसी प्रकार के विवर्त का कोई सम्पर्क नहीं है, वह नित्य है और निरन्तर परिणाम को प्राप्त होते रहने वाले असीम शाश्वत चिदानन्द का स्वप्रकाश विकास है । दशां चित्रद्वैतं प्रशमवपुषामद्वयनिधिः प्रसूतिः पुण्यानां गलित पृथुपुण्येतरकथः । फलं नो हेतुन तदुभयकथा सावनुभय स्वभावत्वज्ञाने जयति जगदादर्शचरितः ॥ १०२ ॥ आत्मा विभिन्न नयदृष्टियों से सम्पन्न पुरुषों के लिये आश्चर्यकारी द्वैत और प्रशमप्रधान पुरुषों के लिये चिदानन्दमय अद्वैत है । वह पुण्यों का कारण है और पाप की बृहत् कथावों से परे है । वह एकान्ततः न किसी का कार्य है और न किसी का कारण वह अपेक्षा से कार्य-कारण उभयात्मक भी है और साथ ही कार्यकारण उभयानात्मक भी है, संसार में उसका चरित्र Aho ! Shrutgyanam
SR No.034199
Book TitleJain Nyaya Khanda Khadyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay, Badrinath Shukla
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1966
Total Pages200
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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