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________________ (१७०) इस श्लोक में सम्यक्त्व की अपेक्षा ज्ञान की प्रधानता बताई गई है जैन दर्शन में सम्यक्त्व, श्रद्धा, दर्शन, तत्त्वरुचि यह सब शब्द समानार्थक हैं। श्लोकार्थः इस प्रकार है। ज्ञान के विना सम्यक्त्व-श्रद्धा की परिपुष्टि नहीं होती, अज्ञानी की श्रद्धा बड़ी दुर्बल होती है जो विपरीत तर्क से अनायास ही झकझोर उठती है, किन्तु सिद्धान्त के अभ्यास से-अभ्यस्त-सिद्धान्त-ज्ञान से इसकी पूर्ण पुष्टि हो जाती है, क्योंकि ज्ञान से सम्यक्त्व का शोधन ठीक उसी प्रकार सम्पन्न होता है जिस प्रकार अञ्जन से नेत्र का और कतक के चूर्ण से जल का शोधन होता है, अत: सम्यक्त्व का शोधक होने से ज्ञान उसकी अपेक्षा प्रधान है। आसक्तिमांश्च चरणे करणेऽपि नित्यं न स्वान्यशासनविभक्तिविशारदो यः । तत्सारशून्यहृदयः स बुधैरभाणि शानं तदेकमभिनन्द्यमतः किमन्यैः ॥ ८४॥ इस श्लोक में भी ज्ञान की प्रधानता का ही प्रतिपादन है, लोकार्थ इस प्रकार है। . जो मनुष्य चरण-नित्यकर्म और करण-नैमित्तिक कर्म में निरन्तर आसक्त रहता है किन्तु स्वशासन-जैनशासन और अन्यशासन-जेनेतरशासन के पार्थक्य का पूर्णतया नहीं जानता, विद्वानों के कथनानुसार उसके हृदय में करण और चरण के ज्ञानदर्शनात्मक फल का उदय नहीं होता । इस लिये एक मात्र ज्ञान ही अभिनन्दनीय है, और अन्य समस्त साधन ज्ञान के समक्ष नगण्य हैं । न श्रेणिकः किल बभूव बहुश्रुतर्द्धिः प्रज्ञप्तिभाग न न च वाचकनामधेयः । सम्यक्त्वतः स तु भविष्यति तीर्थनाथ: सम्यक्त्वमेव तदिहावगमात्प्रधानम् ।। ८५ ॥ __ इस श्लोक में सम्यक्त्व की अपेक्षा ज्ञान को प्रधान बताया गया है, श्लोकार्थ इस प्रकार है। श्रेणिक ( मगध का एक राजा ) बहुश्रुत नहीं था, उसे प्रज्ञप्ति भी नहीं प्राप्त थी, वह वाचक की उपाधि से भूषित भी नहीं था । इस प्रकार ज्ञानी होने का कोई चिन्ह उसके पास नहीं था, किन्तु उसके पास सम्यक्त्व-श्रद्धा का बल था, जिसके कारण वह भविष्य में-आगामी उत्सपिणी काल में तीर्थकर होने वाला है, तो फिर ज्ञान न होने पर भी केवल सम्यक्त्व के बल से जब तीर्थकर Aho ! Shrutgyanam
SR No.034199
Book TitleJain Nyaya Khanda Khadyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay, Badrinath Shukla
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1966
Total Pages200
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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