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________________ ( १५८ ) * है, जब किसी आत्मा को उसके पूर्वकर्मानुसार कोई लघु शरीर प्राप्त होता है, तब वह आत्मा अपने समस्त प्रदेशों को समेट कर उस लघु शरीर में ही सीमित हो जाता है तथा जब वह किसी विशाल शरीर को प्राप्त करता है तब अपने. प्रदेशों को विस्तृत कर उस विशाल शरीर में फैल जाता है और जब अपने कर्मबन्धनों से मुक्त हो जाता है तब प्रदेशों की परिधि को लांघ कर अलोकाकाश में उठ जाता है, इस प्रकार जैनदर्शन की दृष्टि में आत्मा के एक संकोच विकासशाली पदार्थ होने से उक्त प्रश्न के लिये कोई अवकाश नहीं रहता । . स्वाहाभुजो ज्वलनमूर्ध्वमपि स्वभावात् सम्बन्धभेदकालतादथवाऽस्त्वदृष्टशत् । दिग्देशवर्तिपरमाणुसमागमो 45 तच्छक्तितो न खलु बांधकमत्र विद्यः ॥ ७१ ॥ पूर्व श्लोक में यह बात बताई गई है कि व्यक्ति रूप में आत्मा अपने शरीरमात्र में ही सीमित रहता है, इस पर यह शङ्का होती है कि जब आत्मा शरीर - मात्र में ही सीमित रहेगा तब आत्मगत अदृष्ट का दूर-दूर के भिन्न-भिन्न स्थानों में विद्यमान अग्नियों के साथ एक साथ सम्बन्ध न हो सकने के कारण उनमें एक साथ जो ऊर्ध्वमुख ज्वाला का उदय होता है वह कैसे होगा ? शङ्खा का आशय यह है कि जब आत्मा को शरीरमात्र में सीमित न मान कर विभु माना जाता है तब आत्मगत अदृष्ट का विभिन्न स्थानवर्ती अग्नि के साथ स्वाश्रयसंयुक्तसंयोग अथवा स्वाश्रयसंयोग सम्बन्ध एकसाथ हो सकता है। जैसे स्व है अदृष्ट, उसका आश्रय है आत्मा, उससे संयुक्त है विभिन्न स्थानों में विद्यमान अग्नि का समीपस्थ वायु और उसका संयोग है अग्नि के साथ, उसका संयोग है. अथवा स्व है अदृष्ट, उसका आश्रय है आत्मा, व्यापक होने से विभिन्न स्थानवर्ती अग्नि के साथ, इस प्रकार आत्मा को विभु मानने पर उसके अदृष्ट का उक्त सम्बन्ध विभिन्न स्थानवर्ती अग्नि के साथ हो सकने के स्थानवर्ती अग्नियों में एकसाथ ऊर्ध्वाआत्मा विभु न होकर शरीरमात्र में ही. दूरवर्ती भिन्न-भिन्न वायु वा भिन्नसकने से उसके अदृष्ट का भी उक्त स्थानवर्ती विभिन्न कारण उक्त सम्बन्ध से अदृष्ट विभिन्न भिमुख ज्वाला उत्पन्न कर सकेगा। पर जब सीमित रहेगा तब शरीरस्थ आत्मा का भिन्न अग्नि के साथ युगपत् संयोग न हो सम्बन्ध न हो सकेगा, अतः आत्मगत अदृष्ट द्वारा विभिन्न अग्नियों में एकसाथ ऊध्वंज्वलन का जन्म न हो सकेगा । इस शङ्का का उत्तर यह है कि अग्नि का जो ऊर्ध्वज्बलन होता है वह. अदृष्टमूलक नहीं है किन्तु अग्निस्वभावमूलक है, क्योंकि यदि उसे अदृष्टमूलक Aho ! Shrutgyanam ·
SR No.034199
Book TitleJain Nyaya Khanda Khadyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay, Badrinath Shukla
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1966
Total Pages200
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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