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________________ ( १३६ ) गये और वर्तमान काल में स्पर्श किये जाने वाले पदार्थ में व्यक्तिगत ऐक्य न होने पर भी उनके सन्तान में ऐक्य होने के कारण उनमें ऐक्य का अनुभव और व्यवहार भी सम्भव है, अतः अस्तित्व न होने पर भी 'जिसे पहले देखा था के अनुभव और व्यवहार के होने इस प्रकार यह ठीक में रूपत्व गुण से भिन्न गुणी का स्थायी उसे इस समय स्पर्श करता हूँ' में कोई बाधा नहीं हो सकती, तो नहीं है, क्योंकि रूप और स्पर्श में यदि भेद न होता तो अन्धे को भी नील, पीत आदि रूप का प्रत्यक्ष होता, पर ऐसा नहीं होता, अतः दोनों की परस्पर भिन्नता अनिवार्य है । इस पर यदि यह कहा जाय कि जैसे रूप और स्पर्श के आश्रयभूत द्रव्य के एक होने पर भी अन्धे को स्पर्श द्वारा ही उसका प्रत्यक्ष होता है, रूप द्वारा नहीं होता, उसी प्रकार रूप और स्पर्श के एक होने पर भी अन्धे को स्पर्शात्मना हो उसका प्रत्यक्ष होगा, रूपात्मना नहीं होगा । इस प्रकार उपपत्ति हो जाने से रूप और स्पर्श में भेद की कल्पना आवश्यक है, तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर रूपत्व और स्पर्शत्व में साँकर्य हो जायगा । जैसे रूपविशेष- मणिप्रभा है, स्पर्शत्व नहीं है और स्पर्शविशेष- वायु में स्पर्शत्व है, रूपत्व किन्तु रूपस्पर्शविशेषात्मक पृथ्वी में दोनों विद्यमान हैं । इस पर यदि यह कहा जाय कि जाति बाधक होने से जातिवादी नैयायिक के लिये सांकयं दोष हो सकता है पर जो लोग जातिवादी नहीं हैं किन्तु जाति के स्थान में अपोह अतद्व्यावृत्ति मानते हैं, उनके लिये सांकर्य दोष नहीं है । अतः अपोहवादियों के प्रति सांकर्य का उद्भावन असंगत है, तो यह कथन उचित नहीं है, क्यों कि रूपत्व और स्पर्शत्व को अतव्यावृत्तिस्वरूप मानने पर स्पर्श में रूपत्व के और रूप में स्पर्शत्व के समावेश की सम्भावना ही नहीं हो सकती । स्पर्श के साथ रहने वाला रूप अस्पर्श नहीं है और रूप के साथ रहने वाला स्पर्श अरूप नहीं है, अतः एक आश्रय में रहने वाले रूप एवं स्पर्श में अरूपव्यावृत्ति और अस्परांव्यावृत्ति के समावेश में कोई बाधा नहीं है । यह कहना भी अतिरिक्त द्रव्य का अस्तित्व न मानने वाले अपोहवादी बौद्ध के लिये सम्भव नहीं है, क्योंकि द्रव्य के अभाव में रूप और स्पर्श का किसी एक आश्रय में रहना असम्भव है । नहीं है जैसे उक्त कारण से गुण और गुणी में भेद मानना आवश्यक है वैसे ही उनमें अभेद का कोई साधक न होने के कारण भी उनमें भेद मानना अपरिहार्य है । यदि यह कहा जाय कि गुण और गुणी के सहोपलम्भ का नियम ही उनमें अभेद का साधक है, क्योंकि जो पदार्थ परस्पर भिन्न होते हैं उनमें सहोपलम्भ का नियम नहीं होता किन्तु एक का उपलम्भ न होने की दशा में Aho ! Shrutgyanam
SR No.034199
Book TitleJain Nyaya Khanda Khadyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay, Badrinath Shukla
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1966
Total Pages200
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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