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________________ (६६) है, नहीं स्वीकार किया है, अतः शिरोमणि को सम्बोधित कर उपर्युक्त पद्य में कहा गया है, कि शिरोमणे ? जब तुम उक्त भेद और उक्त अभाव को स्वीकार करते हो तो उनके उपजीव्य स्याद्वाद को क्यों नहीं स्वीकार करते ? यह वाद तो समस्त विरोधियों के ऊपर विजय प्राप्त कराने वाला है, इसके द्वारा ही तो किसी पदार्थ का तलस्पर्शी पूर्ण ज्ञान प्राप्त होता है और इसके आधार पर ही तो उक्त भेद तथा अभाव का समर्थन हो सकता है। फिर तुम जब इस स्याद्वाद के समक्ष शिर न टेकोगे तो तुम अपने असाधारण अपूर्व तार्किक होने का अपना गर्व कैसे संभाल सकोगे ? अतः हम तुम्हारे हित की दृष्टि से हाथ बढ़ाकर तुम्हें यह बुद्धिदान करते हैं कि लो हमारा स्याद्वाद और अजेय बन जाओ इसके सहारे । प्रासङ्गिक परिचय अव्याप्यवृत्ति-जिस पदार्थ के आश्रय में उसका अभाव भी देश-भेद वा कालभेद से रहता है उसे अव्याप्यवृत्ति कहा जाता है, जैसे एक ही वृक्ष में उसके शाखात्मक भाग के द्वारा कपि का संयोग और पृथ्वी में छिपे मूलात्मक भाग के द्वारा क्रपिसंयोग का अभाव रहता है, एवं घट आदि जन्य द्रव्यों में उत्पत्ति काल में रूप आदि गुणों का अभाव और उत्पत्ति के बाद वाले क्षणों में उन गुणों का अस्तित्व रहता है, अतः संयोग तथा रूप आदि गुण अव्याप्यवृत्ति कहे जाते हैं, ये गुण जिस आश्रय में रहते हैं उसमें उन गुणों के आश्रय का भेद भी रहता है, क्योंकि सर्वसाधारण को यह प्रतीति होती है कि वृक्ष शाखा में कपिसंयोगवान है मूल में नहीं अर्थात् शाखया कपिसंयोगी भी वृक्ष मूलेन कपिसंयोगिभिन्न है। इस ढंग का भेद अव्याप्यवृत्तिधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताक भेद कहा जाता है, यतः कपिसंयोगिभेद की प्रतियोगिता कपिसंयोगी में है और वह कपिसंयोगरूप अव्याप्यवृत्ति धर्म से अवच्छिन्न है क्योंकि कपिसंयोगी-रूप प्रतियोगी में विशेषण होने से कपिसंयोग उसमें रहने वाली प्रतियोगिता का अवच्छेदक है। प्रतियोगिता-घट का अभाव, पट का अभाव, इस प्रकार अभाव के साथ घट, पट आदि के सम्बन्ध का व्यवहार होता है, अतः अभाव के साथ घट आदि का कोई न कोई सम्बन्ध मानना पड़ता है। तो अभाव के साथ घट आदि का जो सम्बन्ध मानना पड़ता है उसीका नाम प्रतियोगिता है। ___ अवच्छेदक-घट के अभाव की प्रतियोगिता सब घटों में रहती है और घट से भिन्न में नहीं रहती है। अतः उस प्रतियोगिता का कोई न कोई नियामक अवश्य माना जाना चाहिये। यदि कोई उसका नियामक न होगा तो उसका उस प्रकार का नियमित अवस्थान नहीं बन सकता । इसलिये घटत्व को Aho! Shrutgyanam
SR No.034199
Book TitleJain Nyaya Khanda Khadyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay, Badrinath Shukla
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1966
Total Pages200
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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