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________________ न कि दूसरे नयों के विषय के खण्डन में । इसलिये नयान्तर का विरोध न करने पर भी नय नयत्व से च्युत नहीं हो सकता। और इस प्रकार नयों के एक दूसरे के खण्डन का व्यापार छोड़ देने पर सब नयों के समन्वयवादी स्याद्वादनय की विजय ध्रुव हो जाती है । त्यक्तस्वपक्षविषयस्य तु का वितण्डा __पाण्डित्यडिण्डिमडमत्करणेऽन्यनिष्ठा । नग्नस्य नग्नकरतोऽपरनग्नशीर्षे प्रक्षेपणं हि रजसोऽनुहरेत्तदेतत् ॥ ४१ ।। इस श्लोक में वेदान्तनय के द्वारा माध्यमिक के मत का खण्डन करना नैयायिक को उचित नहीं है, इस बात का वर्णन किया गया है। श्लोक का अर्थ इस प्रकार है अपने सिद्धान्त का परित्याग कर अन्य नय अर्थात् वेदान्तनय में निष्ठाबद्ध होकर नैयायिक यदि वैत ण्डिक के समान माध्यमिक के मत का खण्डन करने की चेष्टा करेगा तो वह अपने पाण्डित्य का डंका न बजा सकेगा. क्योंकि अपने पक्ष का त्याग करने को विवश होना विद्वत्ता का लक्षण नहीं कहा जा सकता। इस प्रकार की चेष्टा से नैयायिक के केवल पाण्डित्य और प्रतिष्ठा का ह्रासमात्र ही नहीं होता प्रत्युत आप से आप वह हास्यास्पद भी बन जाता है, क्योंकि उसका यह कार्य उस मनुष्य के समान है जो स्वयं नग्न होते हुये भी दूसरे नग्न मनुष्य के हाथ से धूल लेकर उसे किसी अन्य नग्न मनुष्य के शिर पर डालने का लज्जाकर कार्य करता है । देशेन देशदलनं भजनापथे तु स्वच्छासने निजकरेण मलापनोदः । व्याघातकृन्न भजना भजना जनाना मित्थं स्थितौ शबलवस्तुविवेकसिद्धेः ॥ ४२ ॥ स्याद्वादी न्यायनय के द्वारा बौद्धमत का खण्डन कर सकता है। क्योंकि स्याद्वाद दर्शन में इस प्रकार का खण्डन अपने हाथ अपने अंग की मैल धोने के समान है कहने का तात्पर्य यह है कि स्याद्वाद में सब नयों का समावेश होने से सभी नय उसके अंगतुल्य हैं और एक दूसरे को दोषयुक्त ठहराने का उनका आग्रह ही उनका मल है, अतः अपने अंगभूत एक नय के द्वारा अपने अंगान्तररूप अन्य नय के उक्त मल का अपनयन करना स्याद्वादरूपी अंगी का उचित तथा आवश्यक कर्तव्य है। Aho! Shrutgyanam
SR No.034199
Book TitleJain Nyaya Khanda Khadyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay, Badrinath Shukla
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1966
Total Pages200
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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