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________________ वर्मपरी ॥१४॥ यतः-प्रथमवयसि पीतं तोयमल्पं स्मरंतः। शिरसि निहितनारा नासिकेरा नराणाम् ॥ उदकममृतकल्पं दाराजीवितांतं । न हि कृतमुपकारं साधवो विस्मरन्ति ॥१॥ नगर तणुं टालो पुःख देव, जे कहो ते हवे कीजे सेव ॥ सहुको शरण करो || | जिनदत्तनु, जो मन जे तुमने जीवितवें ॥ १७ ॥ राजा प्रजा सहु देहरे आवे, पगे | लागी अपराध खमावे ॥ हाथीपर बेसारी शीषे, नगर मांहीं आएयो अवनीशे ॥ १ए ॥ उव्या सुजट थयो जयकार, सोवन वृष्टि करी श्रति सार ॥ रतन त्रण अमु-| लक दीधां, शेठ तणां मनवंडित सीधां ॥ २० ॥ सहुको लोक करे परशंसा, धर्म तणी न करे को खींसा ॥ देखो धर्म तणां फल वीर, नवमी ढाल नेमे कही सधीर ॥२१॥ उदा. रतन ले ते मुज पिता, शेजय गिरनार ॥ चैत्य करावी अनिनवां, तिलक च ॥१४४ माव्यां सार ॥१॥ प्रसेनजीतने श्रापीयां, रतन त्रण उदार ॥मादा गुरुनोजक्त ए, ए। मन करी विचार ॥२॥ लोदषुराने वली दीयां, रतन त्रण सुखकार ॥ तेणे द्यूते ते
SR No.034172
Book TitleDharmpariksha Ras
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages336
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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