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धर्मपरी
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उपरे तसु राग, मंत्री जयदेव वे चार्वाक ॥ सु० ॥ १ ॥ शत्रु तणो पराजव जाण, चाल्यो | नरपति निग्रह जाए ॥ सु० ॥ जीती नगरमां श्रावे जाम, पोल वडी पमी श्रगल ताम ॥ सु० ॥ २ ॥ अपशुकन जाणी निरधार, बहार रह्यो राजा तेणी वार ॥ सु० ॥ उतावली कीधी ते पोल, पेसे बीजे दिन करत कलोल ॥ सु० ॥ ३ ॥ पकी वली तिमहीज ते पोल, मंत्री करावी देश बहु मोल ||सु०॥ त्रीजे दिने पेसे जब नूप, पुनरपि थयो तेह सरूप ॥० ॥४॥ मंत्री कहे राजन श्रवधार, कोइक सुर कोप्यो सुविचार ॥ सु०॥ निज हाथे माणस एक मार, तेहने रुधिरे जो दीजे धार ॥ सु० ॥ ५ ॥ तो निश्चय ए थाये स्वाम, छावर पूजा बलि नावे काम ॥ सु०॥ भूप जणे हिंसा जिहां होय, तेह नगरशुं काम न कोय ॥ सु० ॥ ६ ॥ जे सुवरणे तुटे कान, पहेरे तेने कोण अजाण ॥ सु० ॥ जिहां हुं तिहां नगर विशाल, कोण करे एड्वो जंजाल ॥ सु० ॥ ७ ॥ निश्चय राजानो ए जाए, मंत्री महाजनशुं करे वाण ॥ सु०॥ राजा नवि माने ए वात, निज नगर केम छोड्यो जात ॥ सु०॥ ८ ॥ सहु मली विनवी राय, छामे करशुं एह उपाय ॥ सु०॥ पुष्य तो जेम बडो विजाग, पामे नरपति पाप विभाग ॥ सु० ॥ ए ॥ पाप तणुं फल अमने देव, तमे पुण्यवंत प्रभु नित्यमेव ॥ कंचन पुरुष कराव्यो एक, अलंकर्यो तेने सुविवेक ॥ सु०
खंग
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