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धर्मपरी
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सा॥१४॥ मिथ्या मत अविरत कषायना दे, तेहना नेद अपार ॥ पन्नर प्रमाद वली खंग जोगना हे, कर्माश्रव ए धार ॥ सा॥ १५ ॥ समकित सुधे संजम हे, सुमति गुपति वर धर्म ॥ परिसर संवर उपजे हे, सुगति मुगति होय शर्म ॥ सा ॥१६॥ चार ग-1 तिना जीवने हे, निर्जरा होये सविपाक ॥ मुनिवर स्वामी तपबले हे, निर्जरा करे । अविपाक ॥ सा ॥ १७ ॥ अधो मध्य ऊर्ध्व कह्यो हे, त्रण प्रकारे लोक ॥ उंचो राज चौद तणो दे, त्रणसें त्रितालां थोक ॥ सा॥१७॥ नरजव दुलहो जाणवो हे, फुलहो, श्रावक धर्म ॥ रतन त्रय व्रत फुलहो हे, मुगति गमन जिहां शर्म ॥ सा॥१॥ दमा मार्दव आर्जव गुणे हे, संजम शौच तप त्याग ॥ सत्य निग्रंथ व्रत पालवू दे, एह धर्म तणा दश नाग ॥ सा० ॥२०॥ ढाल दशमी बहा खंगनी हे, सांजलजो सहु कोय || रंगविजय शिष्य एम कहे हे, नेमविजय सुख होय ॥सा॥१॥ उदा सोरठी.
॥१२॥ कार्तिकेय मुनि नाम, शुज ध्यान मनमां धरी ॥ श्रातम ध्याये सुख, होय सुगति || मुगति जीवे वरी॥१॥ वेद्यो नेद्यो नवि जाय, तेह शरीर बेदन नेदन सहे ॥ अप्पा