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धर्मप
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| जाणीने सहु लोक ॥ सा० ॥ धण कण दान दीये घणुं, सुख पाम्यां दोये गयो शोक ॥ सा० ॥ श्र० ॥ ११ ॥ जमतां जमतां उजेली गया, इतनी शाला मोकार ॥ सा० ॥ जुवारी घणा जुवटे रमे, तिहां लावी तेह जरतार ॥ सा० ॥ श्रो० ॥ १२ ॥ सीकुं खुंटे बांधीने गई, सती हाट शेरी जिक्षा काज ॥ सा० ॥ एहवे जुखारीने फुफ दुवो, खड्ने हण्यो दूतराज ॥ सा० ॥ श्रो० ॥ १३ ॥ शिर तुटी भूमिए पड्युं, सीकुं बेदाएं वली ताम ॥ सा० ॥ दधिमुख पुण्य प्रगट थयुं, मस्तक लाग्युं धड ठाम ॥ सा० ॥ श्रो० ॥ १४ ॥ अन्य कबंध शिरपर तणुं, दधिमुख निपन्यो एह ॥ सा० ॥ विप्र कहो केम नवि मिले, मुज शिर मुज तो देह ॥ सा० ॥ श्रो० ॥ १५ ॥ बहा खंडनी ढाल | चोथीए, विवेक ती कही वात ॥ सा० ॥ रंगविजय शिष्य एम कहे, नेमविजयने सुख सात ॥ सा० ॥ श्रो० ॥ १६ ॥
उदा.
ब्राह्मण कहे जोगी सुपो, सत्य वचन तुम एह ॥ स्मृति पुराणे श्रमे सांजस्युं, खोटुं कहीए केम ते ॥ १॥ खग कहे अपर वली सुणो, रावण लाव्यो हरी सीत ॥ ह नुमंत अंगद मोकल्यो, रामे विस्टाली प्रीत ॥ २ ॥ वाली पुत्र अंगद जलो, बोल्यो
खंग
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