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नदीगं रामचंझे तिहां, शंका उपनी तेह ॥३॥ लक्ष्मण सरिखो जाइ मुज, मारवो न
घटे मुज ॥ सीताने हुँ जाणतो, सीतानां लक्षण गुऊ ॥४॥ ए तो बगमी ने सही, मायें अपजश थाय ॥ तो केम हुँ हवे करूं, काढी मेनुं वन मांय ॥५॥ लक्ष्मणने | वातो कही, एहने मेलो वनवास ॥ तव लक्ष्मण बोल्या तिहां, ना तुमने श्यावास ॥ ६ ॥ कष्ट उपजावी लावीया, सीता सुलक्षणी नार ॥ एहने वनवासे मेलतां, लाज जाये संसार ॥७॥ रामचंद्रमाने नहीं,मनमां पमी बहु ब्रांत ॥ साचे साचुं चालशे, कर्म न जाणे नाति जात ॥७॥
ढाल दशमी.
निजमी वेरण हुइ रही-ए देशी. रामे मेली सीता वनवासमां, तिहाथी श्रावी हो तापसने श्रावास के ॥ गिरि के दर गुफा जिहां, तापसनां हो आश्रम निवास के ॥ सुगुण सोजागी सांजलो ॥ ए आंकणी ॥ १॥ अंतराय कर्मना योगथी, श्रावी लाग्यां हो कर्मनां फल एह के ॥ राम गया घर श्रापणे, सीता नारी हो विसारी मेली तेह के ॥ सु० ॥२॥ अनुक्रमे || मास पूरण थया, दोय कुमर हो जनम्या श्रीकार के ॥ लव ने कुश नाम थापीयां,