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॥ सा०॥ १३ ॥ जो ज्ञानवंत ब्रह्मा होये, तो कां पूजे अगस्ति ॥सृष्टि मारी को हरी गयो, कहो षिवर किहां वस्ति ॥ सा ॥ १४ ॥ ब्रह्माए सहु सरजीयुं, तो सरजी नहीं एक नार ॥ रीडमीने सेवे सदा, कामांध होये गमार ॥ सा ॥ १५॥ नारायण जाणे सहु,
सृष्टि तणो संहार ॥ तो सीताहरण नहीं जाणीयो, पूज्यो सयल संसार ॥ १६ ॥ जकलमबंध बांध्या थका, बूटे सघला लोक ॥ रामचं समरथ सदा, नांजे सहुनो शोक ॥
सा ॥ १७ ॥ रावण पुत्र पराक्रमी, इंजित जेहनुं नाम ॥ सकल सैन तेणे बांधीयो, लक्ष्मण ने वली राम ॥ सा० ॥ २७ ॥ शोक सहुने उपन्यो, रवि जगमते एह ॥ सत्प विसख्या औषधी, नावे तो मरे तेह ॥ सा॥ २७ ॥ हणुमंते वेगे करी, आणी सल्प विसत्य ॥ राम लक्ष्मण सेना तणां, नांज्या सघलां शल्य ॥ सा ॥ २० ॥ निज बंधन जेणे नहीं टल्यां, नहीं टल्या शोक संताप ॥ परनां ते केम टालशे, विचारो महा पाप ॥ सा ॥ २१॥ खंम त्रीजे बही ढालमां, नाख्या नवनवा नेद ॥ रंगविजय | शिष्य एम कहे, नेमने हर्ष उमेद ॥ सा ॥ २ ॥
उहा. ब्राह्मण सहु बाना रह्या, नहीं उपजे ते बोल ॥ मनोवेग मन उलस्यो, विप्र हुवा
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