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धर्मपरी
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४॥
उदा. जिनचरणदास बोल्यो जति, ब्राह्मण सुणजो वात ॥ अगस्त्य ऋषिवर अनिनवो, पुराण प्रसिद्ध ए ख्यात ॥१॥ उठ हस्तीनी देहमी, सायर समीपे वास ॥ तप जप ध्यान धरे बहु, सामग्री राखे पास ॥२॥ जोली माजन पात्रने, स्नाने शुद्ध करे . गात्र ॥ सायर तीरे बेसी करी, जोय मेव्यां सवि पात्र ॥३॥ चाल्यो करवा स्नान ते, समुनी लागी खेहेर ॥ जल कलोले लीधी सह, उपन्यो ऋषिने जेहेर ॥४॥ पूजा सामग्री माहरी, पापी जलधिए सीध ॥ तो संहारं एहने, तव तिहां सागर पौध ॥ ५॥ एक चबुमें एटलो, पीधो सागर सर्व ॥ केटलोक काल पेटमां रह्यो, हुं कडं मूकी गर्व ॥६॥ हिज सह को तमे सांजलो, पुराण प्रसिको ताम ॥इंडिमां समायो जो सही, तो हुँ हस्ती बेहु गम ॥ ७॥ अगस्त्य ऋषिए पीधो सहु, वहाण सायर मठ ॥ एह वात मानो खरी, तो माहरी वातो सच्च ॥ ॥ विप्र बोल्या तव सहु |मली, पुराणमां वात मनाय ॥ तुम वयण केम लोपीए, लाग्या तुमारे पाय ॥ ५ ॥ Musa माया मुनि तव बोलीयो, ब्राह्मण सुणजो वात ॥ अपर वात पुराणे कही, सांजलजो विख्यात ॥१०॥