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________________ 卐卐卐ESE卐ES卐卐 तथा च. मूकत्वं काहलत्वं च, लूताकुष्टादिदोषजाः। मुखरोगाः सप्तषष्टिर्जायते जिननिंदया॥२॥ भावार्थ:-जिनेश्वर महाराजनी जे माणसो निंदा करे छे, ते माणसो मुंगा थाय छे, गांडा थाय छ, तथा लूतादोष | अने कुष्टादि दोषथकी उत्पन्न थयेला, सडसठ प्रकारना मुखना रोगोवाळा थाय छे. विशेषमां सर्व प्रकारना रोगवाळा थाय छे. अपि च. अयशोऽकालमरण-दुखं वक्त्रविगंधता'। लूतातंतुमुखादोषा, भवंति गुरुनिंदया ॥३॥ भावार्थ:-गुरु महाराजनी निंदा करनारने कोइपण काले यशनी प्राप्ति थती नथी, पण अपयश ज मळे छे, तेम ज | अकाळे मरण प्राप्त थाय छे अने मुखने विषे दुर्गधपणुं प्राप्त थाय छे, तेम ज लूतातंतु आदि अनेक दोषोनी प्राप्ति थाय छै. | पुनरपि. ___ संसारी नरके तिर्यग्भवे स्यात् स पुनः पुनः। धर्माणां निंदको नैव, लभते मानुषं भवम् ॥ ४॥ भावार्थः-धर्मनी निंदा करनार माणस मरीने नरकने विषे जाय छे अने त्यांथी तिथंच गतिने विषे जाय छे, त्यांथी नरकने विषे जाय छ, आवी रीते वारंवार नरकगति अने तिर्यच गतिमां भटक्या ज करे छे, परंतु कदापिकाले मानव जन्मने पामी शकतो नथी. अपरंच. त्रयाणामपि यस्तेषां, निंदको घोरपातकी । तस्य संसर्गमात्रेण, मलिनीस्युः परे
SR No.034170
Book TitleChaumasi Vyakhyan Bhashantar Tatha Ter Kathiyanu Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManivijay
PublisherJain Sangh Boru
Publication Year1936
Total Pages186
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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