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श्री अनन्त - नाथचरि
त्रादुद्धृतं पूजाष्टकम् ॥ २२ ॥
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फलसलिलवासकुसुमेहिं । पूयंति जे जिणं ते पुज्जा तिजयस्स वि हवन्ति ॥ ६३ ॥ कीरंति एक्केकावि हरइ गुरुरोगसोगोगचे । किं पुण सबाओ वि हु विरइज्जंतीड भत्तीए ॥ ६४ ॥ सबाओवि असत्तो काउं जइ कुणइ धूवपूयंपि । ता धूवेण समं सो धुवं नियं दहइ दुक्कम्मं ॥ ६५ ॥ उज्झतधूवभवधूमधूविओ इव सुयंधसवंगो । जायइ भवंतरेवि हु जीवो उक्खिवियजिणधूवो ॥ ६६ ॥ तं सोउं सो जंपर पहु नूणमहं कयत्थजणपढमो । मरणंतबसणविणिग्गएण तं जेण संपत्तो ॥ ६७ ॥ इय भणिय पणमिय मुणी लग्गो सो निययगाममग्गमि । गच्छंतो संपत्तो गामे सिरिसारनामंमि ॥ ६८ ॥ तंमि तवणीयकलसं नहग्गलग्गं जिणालयं नियइ । सिंगग्गसंगिनवतरणिमंडलं उदयसेलंव ॥ ६९ ॥ तं दहं सो चिंतइ दिणदुगसंबलयदविणकीएण । धूवेण जिणं पूइय पुन्नप्पसरं समज्जेमि ॥ ७७० ॥ इय परिभाविय गहिउं कप्पूरागरुविमिस्सियं धूवं । पत्तो जिणालए पेच्छिउं जिणं हरिसिओ दूरं ॥ ७१ ॥ उल्लसिरमणो संंतलोयणो वित्थरन्तरोमंचो । पसरंतभत्तिभावो धूवं उक्खिवइ जगगुरुणो ॥ ७२ ॥ तयणु मणुयत्त नियजम्मजीवियवाण सहलयं कलिउं । वारं वारं भूमिलियभालमभिनमइ जिणनाहं ॥ ७३ ॥ संचलिओ नियगामे पत्तो य तर्हि पमुक्कअन्नाओ । तम्मि वि भवम्मि रिद्धी जाया से धम्ममाहा ॥ ७४ ॥ संपत्तआउअंतो ज्ञातो अमरो सणकुमारे से । नायं च धूवपूयाए अत्तणो तेणममरत्तं ॥ ७५ ॥ परिभावइ य जहाहं करेमि जिणमंदिरं जमिक्खेडं । जायइ भवंतरे मे बोहित्ति विचितिडं तेण ॥ ७६ ॥ रइयं जुगाइजिणजुयमुत्तुंगं जिणहरं कणयकलसं । दुट्ठदमयाभिहसुरो आइट्ठो तस्स रक्खत्थं ॥ ७७ ॥ जिणचवणजम्मदिक्खा केवलनिवाणगमणदिवसेसु । समगममरेसरेण भत्तीए महूसवे कुणइ ॥ ७८ ॥ इय समुवज्जियसुकओ भुतुं सुरलोयसंभवसुहाई । चविय तओ इह जाओ एसो हं तुम्ह पच्चक्खो ॥ ७९ ॥ ता एयं जिणमंदिरमवलोइय | सुमरिया मए जाई । जह जिणधूवुक्खेवो जाओ कल्लाणद्देऊ मे ॥ ७८० ॥ तं सोऊणं मंडलियमंतिणो बिंति जयइ जिण
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धूपपूजायां धूपसुंदरकथा
॥ २२ ॥